नई दिल्ली.
अफगानिस्तान में तालिबान इस समय हिंसा को माध्यम बनाकर अपना राजनीतिक मकसद पाने की कोशिश कर रहा है। वहां की सरकार लगातार कमजोर होती जा रही है और तालिबान प्रभावशाली। इससे दूसरे देश भी चिंतित हैं। चीन इसलिए फिक्रमंद होगा, क्योंकि इसका प्रभाव शिनच्यांग में पड़ेगा और रूस इसलिए कि मध्य एशिया में अगर इस्लामिक रैडिकलिज्म या टेररिज्म फैलता है तो प्रभाव उसके यहां भी होगा। ईरान भी इससे मुश्किल में पड़ेगा, क्योंकि अफगानिस्तान में सुन्नी–शिया की जो लड़ाई है, उसमें माइनॉरिटी रिफ्यूजी बनकर ईरान की ओर जाएंगे। यह होने भी लगा है। इस तरह से अफगानिस्तान के जो पड़ोसी देश हैं, सबके अपने-अपने हित और दुविधाएं हैं।
तालिबान को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह किस तरह से इवॉल्व हो रहा है और उसका डायरेक्शन क्या है। इसमें पारंपरिक रूप से भारत की पोजिशन यही रही है कि जो भी पॉलिटिकल सेटलमेंट हो, वह अफगान नियंत्रित हो। अगर ऐसा कोई सेटलमेंट निकलकर आता है तो भारत को उसका समर्थन करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। काफी समय तक भारत ने तालिबान से अपने संबंधों को आगे नहीं बढ़ाया, क्योंकि काबुल में जो अफगान सरकार थी, भारत उसी को वैध मानता था और उसी को केंद्र में रखकर अपनी पॉलिसी बनाता था।
कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, कतर ने कहा कि भारत ने तालिबान से बातचीत की है, जिसका खंडन तो भारत ने किया है, लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि भारत तालिबान के साथ बैक चैनल निगोशिएशन तो कर ही रहा है, क्योंकि वहां की राजनीतिक प्रक्रिया में उसकी बड़ी भूमिका होगी। अब भारत को रणनीति बनाकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके समर्थन वाले स्टेकहोल्डर्स को भी पावर शेयरिंग अरेंजमेंट में रोल मिले। कहीं ऐसा ना हो कि पावर शेयरिंग अरेंजमेंट एकतरफा हो जाए। इसके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि भारत, ईरान और रूस जैसे देशों के साथ एक कॉमन फ्रेमवर्क बनाए। इसीलिए विदेश मंत्री एस. जयशंकर रूस जाते वक्त ईरान में भी रुके, वहां उन्होंने अफगानिस्तान पर चर्चा की।
भारत ने रूस और ईरान के साथ नॉर्दन एलायंस को 1990 में सपोर्ट किया था। अफगानिस्तान के कॉन्टेक्स्ट में ईरान और रूस के ऐतिहासिक संबंध हैं, जिनको बदलते जमीनी हालात में भारत रिवाइव करने की कोशिश कर रहा है। वहीं ईरान में भी एक नई सरकार आ रही है, नया पावर स्ट्रक्चर खड़ा हो रहा है।
भारत कोशिश कर रहा है कि अफगानिस्तान के जो पड़ोसी देश हैं और जो लाइक माइंडेड कंट्रीज़ हैं, जिनके हित एक से हैं, वे एक हों। इससे तालिबान और पाकिस्तान को बैलेंस किया जा सकेगा, क्योंकि अभी दिख रहा है कि तालिबान जीत रहा है और पाकिस्तान उसके साथ है। उसे तभी बैलेंस कर पाएंगे जब भारत, रूस और ईरान जैसे देश इकट्ठा होकर अफगानिस्तान का कोई ऐसा पॉलिटिकल सेटलमेंट दे पाएं, जिसमें सारे स्टेकहोल्डर्स पावर शेयर करें, न कि केवल तालिबान का वर्चस्व हो।
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