अजरमेरः राजस्थान के अजमेर में कैंसर से जूझ 11 वर्षीय भव्य चंगेरिया ने गुरुवार रात संथारा ले लिया। कहा जा रहा है कि इतनी कम उम्र में संथारा का यह पहला मामला है। इस बात की जानकारी मिलते ही भव्य के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचे। भव्य को देखने पहुंचे लोगों की आंखें नम थीं। सभी ने उस मासूम के मोक्ष की प्रार्थना की।
भव्य चंगेरिया गत चार साल से ब्रेन ट्यूमर से जूझ रहे थे। भव्य ने गुरुवार को संथारा लेने से पहले अपनी मां से कहा कि रोना मत, हंसकर विदा देना। प्राप्त जानकारी के मुताबिक भव्य ने गुरुवार को अपराह्न करीब 1.30 बजे संथारा लेने के बाद रात करीब 8.15 बजे प्राण त्याग दिए। शुक्रवार सुबह 9.30 बजे बजे उनके निवास से अंतिम यात्रा निकाली गई, जिसमें जैन समाज और दूसरे लोग भी बड़ी संख्या में शामिल हुए। भव्य का अंतिम संस्कार ऋषि घाटी, मुक्तिधाम में हुआ।
भव्य के परिजनों ने बताया कि अजमेर के जेएलएन हॉस्पिटल में वेंटिलेटर पर भर्ती भव्य के बारे में डॉक्टरों ने कहा कि उनके हाथ में अब कुछ नहीं है। इसके बाद गुरुवार को भव्य को घर लाया गया। भव्य पूर्व में ही परिवार के आगे संथारा की इच्छा जता चुके थे। समाज की महासती सुशीला कंवर, सरलेश कंवर एवं विमलेश कंवर सहित साध्वियों ने भव्य को जैन रीति-रिवाज से संथारा दिलवाया।
भव्य के परिवार से जुड़े एडवोकेट सूर्य प्रकाश गांधी ने बताया कि परिवार की जैन धर्म में गहरी आस्था है, महावीर चंगेरिया की बुआ मनोहर कंवर भी साध्वी हैं। पूरे परिवार में जप, तप और धार्मिक संस्कारों का आचार-विचार रहा है।
भव्य के पिता महावीर चंगेरिया ने बताया कि 2019 मैं भव्य के सिर में ट्यूमर हो गया था। परिवार ने अहमदाबाद सहित अन्य कई शहरों में उनका इलाज करवाया, लेकिन फायदा नहीं हुआ। दादा नौरतमल, दादी ज्ञान कंवर, पिता महावीर और मां एकता ने भव्य के फैसले पर गर्व किया।
क्या होता है संथाराः संथारा (संलेखना) जैन धर्म में सबसे पुरानी प्रथा है। जैन समाज में इस तरह से देह त्यागने को बहुत पवित्र कार्य माना जाता है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा कहा जाता है।
इसका अर्थ है- जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है जिसके आधार पर साधक मृत्यु को पास देख सबकुछ त्यागकर मृत्यु का वरण करता है। जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है।
जैन धर्म के शास्त्रों के अनुसार यह निष्प्रतिकार-मरण की विधि है। इसके अनुसार जब तक अहिंसक इलाज संभव हो, पूरा इलाज कराया जाए। मेडिकल साइंस के अनुसार जब कोई अहिंसक इलाज संभव नहीं रहे, तब रोने-धोने की बजाय शांत परिणाम से आत्मा और परमात्मा का चिंतन करते हुए जीवन की अंतिम सांस तक अच्छे संस्कारों के प्रति समर्पित रहने की विधि का नाम संथारा है। इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। इसे धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को ससम्मान जीने की कला कहा गया है।
संथारा को आप इस तरह से समझे…जैन धर्म के अनुसार आखिरी समय में किसी के भी प्रति बुरी भावनाएं नहीं रखीं जाएं। यदि किसी से कोई बुराई जीवन में रही भी हो, तो उसे माफ करके अच्छे विचारों और संस्कारों को मन में स्थान दिया जाता है। संथारा लेने वाला व्यक्ति भी हलके मन से खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा और समाज में भी बैर बुराई से होने वाले बुरे प्रभाव कम होंगे। इससे राष्ट्र के विकास में स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा। इसलिए इसे इस धर्म में एक वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधि माना गया है।