दिल्ली: पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोंदी ने नए संसद भवन की छत पर लगे लगे राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ का अनावरण किया था, जिसको लेकर विवाद खड़ा हो गया है। इस मुद्दे पर राजनीति गरमा गई है। बहस का मुद्दा शेरों की भाव-भंगिमा को लेकर है। विपक्षी दलों का कहना है कि मूल अशोक की लाट में चित्रित शेर सौम्य और राजसी शान वाले हैं, जबकि नई संसद में ‘उग्र’ और ‘बेडौल’ शेरों का चित्रण है। इस मुद्दे पर इतिहासकार एस इरफान हबीब की भी आपत्ति आई है। उन्होंने पूछा है कि इस प्रतीक में शेर ‘अति क्रूर और बेचैनी से भरे क्यों दिख रहे हैं?’ वहीं, सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि ‘शांति और आक्रोश देखने वालों की आंखों में होता है।’ उनका कहा है कि तस्वीर का एंगल ऐसा है कि अंतर मालूम हो रहा है। सियासी वार-पलटवार के बीच आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि सारनाथ में अशोक स्तंभ की खोज कैसे और कब हुई? कैसे अशोक की लाट भारत का राष्ट्रीय प्रतीक बन गई?
दरअसल में हमारा राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ का शीर्ष भाग है। मूल स्तंभ के शीर्ष पर चार भारतीय शेर एक-दूसरे से पीठ सटाए खड़े हैं, जिसे सिंहचतुर्मुख कहते हैं। सिंहचतुर्मुख के आधार के बीच में अशोक चक्र है जो राष्ट्रीय ध्वज के बीच में दिखाई देता है।
आपको बता दें कि करीब सवा दो मीटर का सिंहचतुर्मुख आज की तारीख में सारनाथ म्यूजियम में रखा है, जिस अशोक स्तंभ का यह शीर्ष है, वह अब भी अपने मूल स्थान पर ही है। मगध के सम्राट अशोक ने करीब 250 ईसा पूर्व सिंहचतुर्मुख को स्तंभ के शीर्ष पर रखवाया था। ऐसे कई स्तंभ अशोक ने भारतीय उपमहाद्वीप में फैले अपने साम्राज्य में कई जगह लगवाए थे, जिनमें से सांची का स्तंभ प्रमुख है। अब केवल सात अशोक स्तंभ ही बचे हैं। कई चीनी यात्रियों के विवरणों में इन स्तंभों का जिक्र मिलता है। सारनाथ के स्तंभ का भी ब्योरा दिया गया था, लेकिन 20वीं सदी की शुरुआत तक इसे खोजा नहीं जा सका था। वजह, पुरातत्वविदों को सारनाथ की जमीन पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता था कि नीचे ऐसा कुछ दबा हो सकता है।
बात 1851 की है। खुदाई के दौरान सांची से एक अशोक स्तंभ मिल चुका था। उसका सिंहचतुर्मुख सारनाथ वाले से थोड़ा अलग है। ब्रिटिश राज पर कई किताबें लिखने वाले मशहूर इतिहासकार चार्ल्स रॉबिन एलेन ने सम्राट अशोक से जुड़ी खोजों पर भी लिखा। वह Ashoka: The Search for India’s Lost Emperor में सारनाथ के अशोक स्तंभ की खोज का विवरण देते हैं।
जर्मनी में जन्मे फ्रेडरिक ऑस्कर ओरटेल जवानी में जर्मन नागरिकता छोड़कर भारत आए और तबके नियमों के हिसाब से ब्रिटिश नागरिकता ले ली। रुड़की के थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजिनियरिंग (अब IIT रुड़की) से डिग्री ली। रेलवे में बतौर सिविल इंजिनियर काम करने के बाद फ्रेडरिक ऑस्कर ओरटेल ने लोक निर्माण विभाग में ट्रांसफर ले लिया।
1903 में ओरटेल की तैनाती बनारस (अब वाराणसी) में हुई। सारनाथ की वाराणसी से दूरी बमुश्किल साढ़े तीन कोस होगी। ओरटेल के पास आर्कियोलॉजी का कोई अनुभव नहीं था, इसके बावजूद उन्हें इजाजत मिल गई कि वो सारनाथ में खुदाई करवा सकें। सबसे पहले मुख्य स्तूप के पास गुप्त काल के मंदिर के अवशेष मिले, उसके नीचे अशोक काल का एक ढांचा था। पश्चिम की तरफ फ्रेडरिक को स्तंभ का सबसे निचला हिस्सा मिला। आस-पास ही स्तंभ के बाकी हिस्से भी मिल गए। फिर सांची जैसे शीर्ष की तलाश शुरू हुई। एलेन अपनी किताब में लिखते हैं कि विशेषज्ञों को लगा कि किसी समयकाल में स्तंभ को जानबूझकर ध्वस्त किया गया था। फ्रेडरिक के हाथ तो जैसे लॉटरी लग गई थी। मार्च 1905 में स्तंभ का शीर्ष मिल गया।
जहां स्तंभ मिला था, फौरन ही वहां म्यूजियम बनाने के आदेश दे दिए गए। सारनाथ म्यूजियम भारत का पहला ऑन-साइट म्यूजियम है। अगले साल जब शाही दौरा हुआ तो फ्रेडरिक ने वेल्स के राजकुमार और राजकुमारी (बाद में किंग जॉर्ज पंचम और महारानी मेरी) को सारनाथ में अपनी खोज दिखाई। अगले 15 सालों के दौरान फ्रेडरिक ने बनारस, लखनऊ, कानपुर, असम में कई महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण करवाया। 1921 में वह यूनाइटेड किंगडम लौट गए। 1928 तक फ्रेडरिक लंदन के टेडिंगटन स्थित जिस घर में रहे, उसे उन्होंने ‘सारनाथ’ नाम दिया था। वह भारत से कई ऐतिहासिक कलाकृतियां, मूर्तियां अपने साथ ले गए थे।
आपको बता दें कि सारनाथ में अशोक स्तंभ की खोज भारत में आर्कियोलॉजी की बेहद महत्वपूर्ण घटना है। जब भारत अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हुआ तो एक राष्ट्रीय प्रतीक की जरूरत महसूस हुई। भारतीय अधिराज्य ने 30 दिसंबर 1947 को सारनाथ के अशोक स्तंभ के सिंहचतुर्मुख की अनुकृति को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया। इधर संविधान ड्राफ्ट किए जाने की शुरुआत हुई। हाथों से लिखे जा रहे संविधान पर भी राष्ट्रीय प्रतीक उकेरा जाना था।
भारतीय संविधान की हस्तलिखित प्रति को सजाने का काम मिला आधुनिक भारतीय कला के पुरोधाओं में से एक नंदलाल बोस को। बोस ने एक टीम बनाई जिसमें 21 साल के दीनानाथ भार्गव भी थे। बोस का मन था कि संविधान के शुरुआती पन्नों में ही सिंहचतुर्मुख चित्रित होना चाहिए। चूंकि भार्गव कोलकाता के चिड़ियाघर में शेरों के व्यवहार पर रिसर्च कर चुके थे, इसलिए बोस ने उन्हें चुना। 26 जनवरी, 1950 को ‘सत्यमेय जयते’ के ऊपर अशोक के सिंहचतुर्मुख की एक अनुकृति को भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया।
भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, भारत का राजचिह्न सारनाथ स्थित अशोक के सिंह स्तंभ की अनुकृति है, जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। मूल स्तंभ में शीर्ष पर चार सिंह हैं, जो एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं। इसके नीचे घंटे के आकार के पदम के ऊपर एक चित्र वल्लरी में एक हाथी, चौकड़ी भरता हुआ एक घोड़ा, एक सांड तथा एक सिंह की उभरी हुई मूर्तियां हैं। इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं। एक ही पत्थर को काट कर बनाए गए इस सिंह स्तंभ के ऊपर ‘धर्मचक्र’ रखा हुआ है।
भारत सरकार ने यह चिन्ह 26 जनवरी, 1950 को अपनाया। इसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा दिखाई नही देता। पट्टी के मध्य में उभरी हुई नक्काशी में चक्र है, जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं तथा बाएं छोरों पर अन्य चक्रों के किनारे हैं। आधार का पदम छोड़ दिया गया है। फलक के नीचे मुण्डकोपनिषद का सूत्र ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है, जिसका अर्थ है- ‘सत्य की ही विजय होती है’।’