दिल्ली डेस्क

प्रखर प्रहरी

दिल्लीः भारत रत्न प्रणव मुखर्जी भारतीय राजनीति में एक ऐसा चहरा थे, जिनका सम्मान विरोधी भी करते थे। एक क्लर्क एवं शिक्षक से फिर सियासी गलियारे में पांव रखने वाले प्रणव मुखर्जी ने देश का सर्वोच्च पद राष्ट्रपति बनने तक का सफर तय किया, लेकिन प्रबल दावेदार होने के बावजूद वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए।  प्रणव दा के राजनीतिक करियर में तीन बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि वह प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन तीनों बार वह पीएम नहीं बन सके।

आइए आपको बताते है कि कब-कब पीएम बनते-बनते रह गए प्रणव मुखर्जीः-

  • इंदिरा राजनीतिक मुद्दों पर प्रणव दा की समझ की कायल थीं और उन्हीं के आग्रह पर प्रणव दा 1969 में पहली बार राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे थे। यही वजह थी कि उन्होंने प्रणब दा को मंत्रिमंडल में नंबर दो का दर्जा दिया। वह भी तब जब उसी मंत्रिमंडल में आर. वेंकटरामन, पीवी नरसिम्हाराव, ज्ञानी जैल सिंह, प्रकाश चंद्र सेठी और नारायण दत्त तिवारी जैसे कद्दावर नेता थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अगले प्रधानमंत्री के रूप में प्रणव का नाम भी चर्चा में था, लेकिन पार्टी ने राजीव गांधी को चुना।इसके बाद दिसंबर 1984 में लोकसभा चुनाव हुए। कांग्रेस ने 414 सीटों पर जीत हासिल की। इसके बाद मंत्रिमंडल में प्रणव दा को जगह नहीं मिली। बाद में उन्होंने लिख,  “जब मुझे पता लगा कि मैं कैबिनेट का हिस्सा नहीं हूं तो दंग रह गया। लेकिन, फिर भी मैंने खुद को संभाला। पत्नी के साथ टीवी पर शपथ ग्रहण समारोह देखा।” प्रणव दा ने कांग्रेस छोड़कर 1986 में राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन तीन साल बाद राजीव गांधी से उनका समझौता हुआ और आरएससी का कांग्रेस में विलय हो गया।
  • दूसरी बार 1991 फिर लगा की प्रणव दा ही प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी और कांग्रेस की सत्ता में वापसी। माना जा रहा था कि इस बार प्रणव के मुकाबले कोई दूसरा चेहरा पीएम पद का दावेदार नहीं है, लेकिन इस बार भी वह पीएम नहीं बन सके। इस बार पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया। प्रणव दा को पहले योजना आयोग का उपाध्यक्ष और फिर 1995 में विदेश मंत्री बनाया गया।
  • तीसरी और आखिरी बार 2004 में प्रणव दा के पीएम बनने का मौका आया, लेकिन इस बार भी वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। 2004 कांग्रेस को 145 और बीजेपी को 138 सीटें मिलीं, लेकिन इसे बीजेपी की ही हार माना गया। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस क्षेत्रीय दलों पर निर्भर थी। सोनिया गांधी के पास खुद प्रधानमंत्री बनने का मौका था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। प्रणव मुखर्जी का नाम फिर चर्चा में था, लेकिन सोनिया ने जाने माने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। वह 2004 से 2012 तक  मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में नंबर-2 रहे। प्रणव दा ने 2004 से 2006 तक रक्षा, 2006 से 2009 तक विदेश और 2009 से 2012 तक वित्त मंत्रालय कार्यभार संभाला। इस दौरान वे लोकसभा में सदन के नेता भी रहे। यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में उनकी भूमिका संकटमोचक की रही। 2012 में पीए संगमा को हराकर वे राष्ट्रपति बने। इस चुनाव में उन्हें 70 फीसदी मत हासिल हुआ।

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