आमतौर पर भारत में हलाल शब्द का इस्तेमाल मुस्लिम समाज द्वारा किया जाता है। मुस्लिम तबका जो मांसाहार करता है उस मीट-मांस को हलाल मीट शॉप से ही खरीदा जाता है। इस शब्द का इस्तेमाल अभी तक केवल मटन-चिकन की दुकानों तक सीमित था। मगर इन दिनों देश के बहुत से खाद्य पदार्थों पर भी हलाल सर्टिफिकेशन की मोहर और लोगो देखा जा रहा है। पर्सनल केयर ब्रांड, डिब्बा बंद शाहकारी खाद्य पदार्थ, दवाईयों और नैचरोपैथी के प्रोडक्ट पर भी हलाल सर्टिफिकेशन की मोहर देखकर एक बड़े षड़यंत्र का पता चलता है।
इस सर्टिफिकेशन का अर्थ है कि जिस कंपनी के ब्रांड पर यह सर्टिफिकेशन नंबर है उस कंपनी ने अपने प्रोडक्ट को बनाने में इस्लामिक कानून का पूरी तरह से पालन किया है। भारत जैसे देश में जहां लाखों कंपनियों द्वारा कोरोडों उभोक्ताओं के इस्तेमाल में आने वाले एफएमसीजी (फॉस्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) उत्पादनों का निर्माण किया जाता है। इन सभी कंपनियों पर भारत सरकार के उभोक्ता मंत्रालय एवं एफएसएसएआई के सर्टिफिकेट की जरूरत होती है। सभी तरह के एफएमसीजी उत्पादनों एवं खाद्य पदार्थों पर एफएसएसएआई की अनुमति जरूरी है। मगर इनके बीच हलाल सर्टिफिकेशन ने कैसे घुसपैठ की है यह बड़ा सवाल है। देश के उभोक्ता कानून में जागरूकता का अभाव और सरकार की अनदेखी की वजह से हलाल सर्टिफिकेशन ने करोडों रुपया बटोर लिया और सरकार को भनक तक नहीं लगी।
भारत जैसे देश में यह इस्लामिक पाखंड किसने शुरू किया और किसकी शह पर देश की कंपनियों से हलाल सर्टिफिकेट के नाम पर अरबों रुपया वसूलना का धंधा चलाया जा रहा है। यह जांच का विषय है। भारत में किसी भी तरह का इस्लामिक कानून लागू नहीं होता (केवल मुसलमानों के कुछ मुद्दों को छोड़ कर) फिर कैसे भारत की सभी एयर लाइंस और भारतीय रेलवे जैसे प्रतिष्ठानों को भी अपने यहां खाद्य पदार्थ की सप्लाई के दौरान हलाल सर्टिफिकेशन अनिर्वाय किया गया। यह ब़डी हास्याप्रद बात हैं कि भारत सरकार के समानांतर एक निजी कंपनी ने अपना कानून देश में लागू कर दिया। आज देश में बिकने वाले आटे, बेसन, मिठाई, मख्खन, दूध, शहद, सौंदर्य प्रसाधन, तेल, चाकलेट, सूख मेवे, नमकिन, शराब, घी और अन्य खाद्य पदार्थों पर हलाल सर्टिफिकेशन की मोहर देखी जा सकती है। हलाल सर्टिफिकेशन भारत के उपभोक्ताओं के साथ एक बड़ा षड़यंत्र है। भारत में कट्टपंथी जमातों द्वारा जिस तरह से गुपचुप तरीके से हलाल औषधियां, हलाल खाद्य पदार्थ, हलाल गृहशंकुल, हलाल चिकित्साल, हलाल डेटिंग वेबसाइट, हलाल होटल जैसे नाम सुनाई पड़ रहे है।
अगर बात करें दुनिया में निर्यात होने वाले भारतीय खाद्य पदार्थों की तो उसके लिए कंपनियों को इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर स्टैंडर्डाईजेशन (आईएसओ) का प्रमाणपत्र चाहिए। मगर भारत में तो हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेस इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, जमियत-ए-उलेमा-ए-हिंद ट्रस्ट, जमियत-ए- उलेमा महाराष्ट्र, हलाल काउंसिल ऑफ इंडिया, ग्लोबल इस्लामिक शरीया सर्सिवसेस जैसी कट्टरपंथी इस्लामिक संस्थाओं द्वारा धडल्ले से यह सर्टिफिकेट बांटा जा रहा है। अभी तक देश से निर्यात होने वाले डिब्बाबंद मांस के लिए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के तरह आने वाले खाद्य उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए) को हलाल प्रमाणपत्र देना पड़ता था। क्योंकि दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश हलाल मीट के ही खरीददार होते हैं। परंतु मांस के अलावा किसने इस सर्टिफिकेट को खाद्य उत्पादनों पर भी अनिवार्य किया इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। दिलचस्प बात यह हैं कि योगगुरु स्वामी रामदेव ने जब अपने उत्पादनों के लिए हलाल प्रमाणपत्र मांगा जो खाडी के मुल्कों को निर्यात किए जाते थे। मगर उन्हें यह कह कर प्रमाणपत्र नहीं दिया कि उनके उत्पादनों में गौमूत्र मिलाया गया होता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के खिलाफ कट्टपंथी इस्लामिक जमातों की यह नई आर्थिक जेहाद है जिसे देश की बड़ी कंपनियों और एमएनसी पर थोपा जा रहा है। देश में हलाल अर्थ व्यवस्था गति पकड़ रही है जिसके प्रति अगर समाज जाग्रत नहीं हुआ तो भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इस्लामिक कानून लागू हो जाएंगे। दरअसल देश के कट्टरपंथी मुस्लिमों की एक छोटी सी जमात हलाल सर्टिफिकेट बांटने का धंधा चला रही है जिसके साथ उनकी धार्मिक मान्यता जुड़ी हुई है। विचारणीय बात यह हैं कि हलाल सर्टिफिकेशन से प्राप्त धनराशि का बड़ा इस्तेमाल देश के खिलाफ होने का संदेश पैदा हो रहा है क्योंकि इन्हीं मरकजों व्दारा सीएए के खिलाफ देश में दंगा करने वालों को कानूनी मदद दी गई और उनकी अदालत में पैरवी का सारा खर्चा वहन किया गया।
आमतौर पर भारतीय जनमानस के सामने जब भी हलाल शब्द आता है तो मीट और अन्य नॉनवेज के बारे में विचार आता है। अरबी भाषा में हलाल का शाब्दिक अर्थ वैध होता है। इस्लाम में ज्यादातर बातों को हलाल अथवा हराम कह कर व्यक्त किया जाता है। मगर भारत में सेक्युलरता का डंका बजाने वालों का हौसला देखों कि उन्होंने भारतीय संसद और राष्ट्रपति भवन में परोसे जाने वाले खाने को भी हलाल सर्टिफाइड करवा दिया। भारत जैसे देश में इस्लामिक शरिया कानून को किसकी शह पर थोपा जा रहा है यह एक गंभीर सवाल है। खासबात यह कि भारत से संचालित होने वाली विदेशी वेबसाइटों पर हलाल सर्टिफिकेशन के हक में बहुत से लेख भी प्रकाशित कराए जा रहे है। इस तरह की प्रवृत्ति सनातन भारतीय सोच को हाशिए पर धकेल रही है। यह न केवल एक इस्लामिक शरिया कानून को बढ़ावा देने वाला है बल्कि इसकी एक बड़ी राशि जेहाद के लिए खर्च होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
भारत जैसे देश में जहां जैन, सिख, इसाई और पारसी भी अल्पसंख्यक समुदाय से आते है। मगर उनके खानपान में इसतरह के किसी परहेज का उल्लेख सामने नहीं आता। जैन समाज के जो लोग लहसुन और प्याज नहीं खाते अगर वह भी एक रेगुलेशन आथॉरिटी बना कर अपने लिए मानक तय कर दें तो सरकार क्या करेगी। अगर सीधी और सच्ची बात करें तो भारत में कार्यरत सभी खाद्य उत्पादक कंपनियां और मल्टी नेशनल कंपनियां उपभोक्ताओं के हितों और स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ही अपने उत्पादनों का निर्माण करती है। फिर भी उन्हें हलाल सर्टिफिकेट लेने के लिए बाध्य किया जा रहा है।


नरेन्द्र कुमार वर्मा, ( लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं)

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