नई दिल्ली. नए कृषि कानूनों के खिलाफ 55वें दिन भी किसानों का आंदोलन जारी रहा। लेकिन कोई ठोस हल सामने नहीं आया है। गतिरोध तोड़ने की कवायद के तहत सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी का गठन किया है। इस कमिटी के साथ किसानों के साथ पहली बैठक 21 जनवरी गुरुवार को होगी। देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमिटी कोई उचित समाधान तलाश पाती है या नहीं। शक का सबसे बड़ा कारण यह है कि किसान संगठन इस कमेटी का लगातार विरोध करते आए हैं। उनका कहना है कि कमेटी के सदस्य पहले ही कृषि कानूनों का समर्थन कर चुके हैं। ऐसे में इनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान पहले ही समिति से अलग हो चुके हैं।
अभी तक कृषिमंत्री और उनकी नौकरशाही की कोशिश थी कि किसानों को तीनों कानूनों की अच्छाइयों को बताकर उनको राज़ी कर लिया जाएगा। अगर ज़रूरत पड़ी तो सरकार की तरफ से कुछ आश्वासन आदि देकर आन्दोलन को ख़त्म करवा लिया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यह बात बातचीत में शामिल नौकरशाहों को तीन दिसंबर की बैठक के बाद ही समझ में आ चुकी थी। सरकारी अफ़सरों को यह भी अंदाज़ लग गया था कि किसानों के नेताओं की काबिलियत कृषि संबंधी मुद्दों पर सरकारी पक्ष से ज़्यादा है इसलिए उनको सरकारी भाषा की ड्राफ्टिंग के चक्कर में नहीं लपेटा जा सकता।
बता दें कि इससे पहले सरकार और किसानों के बीच कृषि कानून को लेकर दस दौर की बैठक हो चुकी है। हालांकि अभी तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है। इससे पहले 15 जनवरी को सरकार और आंदोलनकारी किसान नेताओं के बीच बातचीत एक बार फिर बेनतीजा रही थी। सरकार की ओर से कृषि कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन किसान नेता इन कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर अड़े हुए थे। बहरहाल, कमेटी के सदस्य अनिल घनवट ने बताया कि किसानों के साथ समिति की पहली बैठक 21 जनवरी को होगी। जो किसान संगठन सीधे मिल सकते हैं उनसे सीधे मीटिंग होगी,लेकिन जो संगठन सीधे नहीं मिल सकते उनके साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग होगी।’
पिछले अध्याय को इस परिप्रेक्ष्य में खंगालना उचित होगा। आपको ध्यान होगा कि कृषि कानूनों पर संसद में चर्चा के दौरान विपक्षी पार्टियों का रुख बहुत कड़ा था, लेकिन सरकार ने उसकी कोई परवाह नहीं की। किसानों के शुरुआती विरोध प्रदर्शनों को भी खास तवज्जो नहीं दी गई। पंजाब में लंबे समय तक रेल पटरियों पर जारी धरने को सिरे से अनदेखा कर दिया गया। वहां से किसान दिल्ली के लिए निकले तो हरियाणा में उन्हें बलपूर्वक रोकने की कोशिश हुई। यहां तक कि दिल्ली बॉर्डर तक पहुंच जाने और यहां डेरा जमा लेने के बावजूद सत्तारूढ़ हलकों की ओर से कभी उनको बरगलाया हुआ बताया जाता रहा तो कभी खालिस्तानी करार देने की कोशिश की गई।
जाहिर है, संवाद की सफलता का सवाल तो बाद में उठेगा, पहले सरकार खुद किसानों पर भरोसा करे। इस क्रम में वह किसानों का विश्वास भी जीत सकती है। दोनों पक्षों को याद दिलाना जरूरी है कि फैसला अंततः बातचीत से ही होगा, बल प्रदर्शन से नहीं। हालांकि बातचीत का माहौल बनाने की जिम्मेदारी निश्चित रूप से किसानों से ज्यादा सरकार की है।
सभी दौरों की बातचीत में सरकार की तरफ से एक ही बात कही जाती रही है कि वह किसानों की सभी आशंकाओं और चिंताओं को दूर करना चाहती है, लेकिन उसकी किसी बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता। साफ है कि सरकार और किसानों के बीच दूरी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। शायद यही वह सबसे बड़ी वजह है, जिसके चलते लगातार बातचीत के बावजूद दोनों पक्षों के बीच सार्थक संवाद का कोई पुल बनता नहीं दिख रहा है। अब उम्मीद की किरण उस बातचीत पर चिकी है, जो 21 को होने वाली है।