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क्या है वक्फ संशोधन बिल, क्या सुप्रीम कोर्ट इसे पलट सकता है, पढ़िये ऐसा मामलों में शीर्ष अदालत के अब तक के फैसले

संवाददाताः संतोष कुमार दुबे

दिल्लीः राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हस्ताक्षर के बाद वक्फ संशोधन विधेयक ने कानून का रूप ले लिया है, लेकिन विवाद अभी थमा नहीं है। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और दूसरे एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने बिल के राज्‍यसभा में पास होते ही शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 की वैधता को चुनौती दी और कहा कि यह संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है यानी असंवैधानिक है।  अब सवाल उठता है कि वक्फ संशोधन विधेयक क्या है। क्‍या वक्‍फ बिल में हुए संशोधनों को पलटा जा सकता है? इन सभी बातों की जानकारी के लिए इस स्टोरी को पूरी तरह से पढ़िये। इससे पहले ‘ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य’ मामले से लेकर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम तक को कोर्ट में चुनौती दी गई और अदालत ने इन पर क्‍या फैसला सुनाया? सबसे पहले बात करते हैं वक्फ संशोधन बिल के बारे में…

वक्फ संशोधन विधेयक क्या हैः

  • वक्फ की सम्पत्तियों की देखरेख के लिए 1950 के दशक में कानूनी तौर पर एक संस्था बनाने की जरूरत महसूस हुई।
  • 1954 में इसके लिए वक्फ एक्ट नाम से एक कानून बनाकर सेंट्र वक्फ काउंसिल का प्रावधान किया गया।
  • इसके एक साल बाद यानी 1955 में इस कानून में बदलाव करके हर राज्य में वक्फ बोर्ड बनाए जाने की शुरुआत हुई।
  • मौजूदा समय में देशभर में 32 वक्फ बोर्ड हैं, जो वक्फ की सम्पत्तियों का रजिष्ट्रेशन और देखभाल करते हैं।
  • बिहार समेत देश के कई राज्यों में शिया और सुन्नी मुस्लिमों के लिए अलग-अलग वक्फ बोर्ड है।
  • केंद्र की बीजेपी सरकार ने विधेयक लाकर 1954 में बने वक्फ एक्ट,जिसके तहत सेंट्रल वक्फ काउंसिल गठित हुई थी, में ही बदलाव किया है।

अब सवाल उठता है कि क्‍या वक्‍फ बिल में हुए संशोधनों को पलटा जा सकता हैः  इससे पहले ‘ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य’ मामले से लेकर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम तक को कोर्ट में चुनौती दी गई और अदालत ने इन पर क्‍या फैसला सुनाया? इसके बारे में जानते हैं…

  • ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): नजरबंदी और मौलिक अधिकारों की व्याख्या से संबंधित शुरुआती मामला- ये संविधान लागू होने के बाद दर्ज मामले में एक ऐतिहासिक फैसला था। इस मामले में प्र‌िवेंटिव डिटेंशन लॉ को दी गई चुनौती सें संबंधित था, जिसके तहत याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया गया था। चुनौती का मुख्य आधार यह था कि कैद ने अनुच्छेद 19 (1) (डी) के तहत प्रदत्त याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकार, भारत के किसी भी हिस्से में स्वतंत्र रूप आने जाने का अध‌िकार, का हनन किया था।
  • शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951): न्यायालय ने माना कि संसद के पास मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति है। भारतीय संविधान का आर्टिकल 368 कहता है कि संसद को एक प्रक्रिया के तहत संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है।
  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): एक ऐतिहासिक निर्णय जिसने ‘मूल संरचना’ सिद्धांत की स्थापना की, संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित किया। ऐतिहासिक केस में 24 अप्रैल 1973 को दिए गए इस फैसले में 7:6 के बहुमत से न्यायालय ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन उसकी ‘मूल संरचना’ को नहीं बदल सकती है।
  • मेनका गांधी बनाम भारत सरकार (1978): अनुच्छेद 21 के तहत ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ के दायरे का विस्तार किया और ‘न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित’ प्रक्रिया की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार (1980): संविधान की सर्वोच्चता पर जोर देते हुए मूल संरचना सिद्धांत को और मजबूत किया। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया कि अनुच्छेद 368 का खंड (4) विधिसम्मत नहीं (invalid) है क्योंकि यह न्यायिक पुनर्विलोकन को समाप्त करने के लिए पारित किया गया था।
  • इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण (1975): सर्वोच्च न्यायालय ने 39वें संशोधन के एक प्रावधान को रद्द करने के लिए मूल संरचना सिद्धांत को लागू किया। इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा निर्णीत इस केस में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी पाया गया था. कोर्ट ने उनके चुनाव लड़ने पर 6 साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया था।  इसके बाद इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी।
  • आईआर कोएलो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007): न्यायालय ने माना कि 24 अप्रैल, 1973 (केशवानंद भारती निर्णय की तिथि) के बाद नौवीं अनुसूची (जो शुरू में न्यायिक समीक्षा से प्रतिरक्षा की एक डिग्री प्रदान करती है) में रखा गया कोई भी कानून इस आधार पर चुनौती के लिए खुला है कि यह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है।
  • नागरिकता (संशोधन) अधिनियम: संसद द्वारा पास किये गए ‘नागरिकता संशोधन कानून’ को लेकर भी सरकार के खिलाफ विपक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था. अदालत ने 4-1 के फैसले से सिटिजनशिप एक्ट की धारा 6A की वैधता को भी बरकरार रखा था।
  • अनुच्छेद 370 को हटाने का निर्णय: जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने का ऐतिहासिक कदम मोदी सरकार ने कानून में संशोधन कर उठाया था। इसके विरोध में भी विपक्षी, सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले को बरकरार रखा है।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड को बताया असंवैधानिक: इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा ऐसा रहा, जहां केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पीछे हटना पड़ा था।  सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक चंदा जुटाने पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड को गुप्‍त रखना ‘सूचना के अधिकार’ और अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन है।

 

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