प्रयागराज: आपने सुदर्शन दंड, नारायण दंड समेत पांच दंड के बारे में सुना होगा, जिसे दंडी संन्यासी धारण करते हैं। दंडी संन्यासियों को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा इसे साथ में रखना होता है।
प्नयागराज में महाकुंभ के दौरान हजारों की संख्या में दंडी संन्यासी भी आए हैं। वह जिस दंड को अपने साथ लेकर चलते हैं, उसे धारण करने की परंपरा अनूठी है। यह दंड वैदिक मंत्रों के आधार पर तय होते हैं। सुदर्शन दंड, नारायण दंड समेत पांच दंड ही दंडी संन्यासी धारण करते हैं। गुरु दीक्षा के बाद हमेशा इसे साथ में रखना होता है।
दंडी संन्यासी स्वामी महेंद्र सरस्वती के मुताबिक सनातन धर्म में शंकराचार्य की पदवी सबसे ऊपर होती है। दंडी संन्यासी ही शंकराचार्य बन सकते हैं। राजदंड को नियंत्रित करने के लिए धर्माचार्यों के भी दंड धारण करने की परंपरा बनी। इस दंड को भगवान विष्णु का भी प्रतीक माना जाता है।
मूलरूप से पांच मंत्रों के आकार पर दंड आधारित हैं। पहला छह गांठ वाला दंड सुदर्शन मंत्र का प्रतीक माना जाता है। मंत्र के आकार के मुताबिक सुदर्शन दंड छह गांठ का बनता है। दूसरा नारायण दंड आठ अक्षरों का होने के नाते आठ पोर का बनता है।
दस गांठ वाले दंड को गोपाल दंड कहते हैं। इसी तरह बारह अक्षर लंबा होने से वासुदेव दंड को बारह गांठ का बनाते हैं। 14 अक्षर वाले दंड को उपनिषद में अनंत के मंत्र को संबोधित करने वाले मंत्र के मुताबिक 14 गांठ का बनाते हैं। इसे ‘अनंत दंड’ कहा जाता है।
दंडी संन्यासी अपनी इच्छा के मुताबिक किसी भी दंड को चुन सकते हैं, लेकिन इसके बाद उसकी शुद्धता और सात्विकता का हमेशा ख्याल रखना होता है। दंड को हमेशा पवित्र बनाए रखने के लिए ही इसे कपड़े से ढंककर रखते हैं। इसे बाहरी स्पर्श कराने से भी मनाही होती है।
दीक्षा के बाद बिना दंड के दंडी संन्यासी का बाहर निकलना निषेध रहता है। पूजन के समय ही दंड को बिना कपड़े के रखा जा सकता है। वहीं, सामान्य लोग दंड का दर्शन न कर सकें, इसलिए भी इसे कपड़े में रखते हैं।