दिल्लीः 1980 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने डॉ.मनमोहन सिंह की प्रतिभा को परखा और उन्हें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का गवर्नर नियुक्ति किया उस समय डॉ. मनमोहन सिंह योजना आयोग के सदस्य-सचिव थे।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन वो ऐसी यादे और विरासत छोड़ गये हैं, जिसे पीढ़़ियां जियेगी। उनके वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री रहने के दौर के कई किस्से प्रचलित हैं। फिर चाहे उनके संसद में शायरी पढ़ने से जुड़े वाकया हों या 1991 के आर्थिक संकट से देश को निकालने का पूरा घटनाक्रम। इन पर पूरे देश में कई बार चर्चाएं हुई हैं। हालांकि, डॉ. मनमोहन सिंह के जीवन के जिस एक दौर की चर्चा सबसे कम हुई है, वह है उनका भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर के दौर के समय की।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उन दूरदर्शी नेताओं में से रही हैं, जिन्होंने कई ऐसे उत्कृष्ट बुद्धजीवियों को राजनीति में शामिल किया, जिन्होंने आगे चलकर देश की नीतियों पर गहरा असर छोड़ा। फिर चाहे वह प्रणब मुखर्जी हों या डॉ. मनमोहन सिंह। प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी की नजर में मनमोहन सिंह 1980 के दशक में आए। उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का गवर्नर नियुक्ति किया। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह योजना आयोग के सदस्य-सचिव थे। यह वो दौर था, जब आईजी पटेल के नेतृत्व में आरबीआई ने देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर दौर में पहुंचा दिया था। डॉ. मनमोहन सिंह ने 16 सितंबर 1982 को आरबीआई के गवर्नर के तौर पर पदभार संभाला और उनका कार्यकाल 14 जनवरी 1985 को तब समाप्त हुआ, जब उन्होंने देश की मौद्रिक नीति और बैंकिंग क्षेत्र में सुधार की नींव मजबूत कर दी थी।
डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी बेटी दमन सिंह की लिखी गई किताब ‘स्ट्रिक्टली पर्सनलः मनमोहन एंड गुरशरण’ में माना है कि आरबीआई गवर्नर रहते हुए उनके तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से कई गंभीर मुद्दों पर मतभेद रहे। इनमें एक मामला विदेशी बैंक- बैंक ऑफ क्रेडिट एंड कॉमर्स (बीसीसीआई) को भारत में कारोबार की अनुमति की मांग से जुड़ा था। इस बैंक का पाकिस्तान में भी करीब एक दशक पहले प्रचार हुआ था। 1980 के दशक में यह बैंक भारत में अपनी कुछ शाखाएं खोलना चाहता था। जहां एक तरफ सरकार चाहती थी कि रिजर्व बैंक इस विदेशी बैंक बीसीसीआई को लाइसेंस दे दे, वहीं मनमोहन सिंह भारत में इस बैंक की स्थापना के खिलाफ थे।
आरबीआई ने जहां विदेशी बैंक के भारत आने की खिलाफत में अपना रुख कड़ा कर लिया था, वहीं सरकार ने रिजर्व बैंक को निर्देश दिया था कि वह बीसीसीआई के आवेदन को मंजूरी दे दे। इसी टकराव में उस समय इंदिरा कैबिनेट में एक प्रस्ताव आया था, जिसमें रिजर्व बैंक की विदेशी बैंकों को लाइसेंस देने की ताकत को छीनने की बात कही गई थी। इस मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि डॉ. मनमोहन सिंह ने इसके विरोध में अपना इस्तीफा वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री को भेज दिया था। सरकार ने हालांकि उन्हें गवर्नर पद पर बने रहने के लिए मना लिया था। इतना ही नहीं इस दौर में ही ट्रैक्टर निर्माता कंपनी एस्कॉर्ट्स और डीसीएम को खरीदने की विदेशी उद्योगपति स्वराज पॉल की पेशकश पर भी प्रणब मुखर्जी और डॉ. मनमोहन सिंह के बीच मतभेद रहा था।
इस किताब में डॉ. मनमोहन सिंह के हवाले से लिखा गया कि रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद भारतीय सिस्टम में काफी सम्मान का पद होता है। लेकिन वित्त मंत्रालय हमेशा गवर्नर की साख को कम करने की कोशिश करता है। उन्होंने कहा, “आरबीआई का गवर्नर अधिकारों या वर्चस्व के मामले में वित्त मंत्रालय से बड़ा नहीं होता और अगर वित्त मंत्री जोर दें तो मुझे नहीं लगता कि गवर्नर सच में किसी बात से इनकार कर सकता है, खासकर अगर उसे नौकरी ही न छोड़नी हो तो।”
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब- ‘द टर्बुलेंट इयर्स’ में डॉ. मनमोहन सिंह के रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से हटाए जाने का भी जिक्र किया था। उन्होंने साफ किया था कि मनमोहन को आरबीआई से हटाकर योजना आयोग में भेजने का फैसला प्रधानमंत्री राजीव गांधी का था और इसमें उनका कोई हाथ नहीं था। प्रणब ने खुद कहा था कि दिसंबर 1985 तक राजीव गांधी मजबूती से सत्ता संभाल चुके थे और वह (प्रणब) खुद कैबिनेट और पार्टी से बाहर हो गए।
अर्थशास्त्री के तौर पर डॉ. मनमोहन सिंह की अकादमिक योग्यता उनका सबसे बड़ा पक्ष थी। साथ ही वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट भी कर चुके थे। आर्थिक मामलों में अपनी जबरदस्त समझ के चलते उन्होंने भारत के बैंकिंग सेक्टर में कई कानूनी सुधारों में अहम भूमिका निभाई। उन्हीं के नेतृत्व में भारतीय रिजर्व बैंक कानून में भी एक पूरा चैप्टर जोड़ा गया और एक शहरी बैंक विभाग की भी स्थापना हुई।
इतना ही नहीं मनमोहन सिंह बैंकों की स्वायत्तता के भी बड़े पक्षधर रहे। दरअसल, 1980 के दशक में बैंकों की तरफ से उनकी कुल जमा की राशि का 36 फीसदी अनिवार्य तौर पर सरकार के पास सुरक्षा गारंटी बॉन्ड के तौर पर रखने का प्रावधान था। इसे स्टैच्यूटरी लिक्विडिटी रेशियो (SLR) यानी वैधानिक तरलता अनुपात भी कहा जाता है। मनमोहन सिंह के आरबीआई गवर्नर रहते सरकार इस एसएलआर को दो फीसदी और बढ़ाना चाहती थी। हालांकि, मनमोहन सिंह ने इस प्रस्ताव की खिलाफत कर दी और एसएलआर में बढ़ोतरी को गलत करार दिया।
डॉ. मनमोहन सिंह ने 20 जनवरी 1984 को तत्कालीन वित्त सचिव को लिखी चिट्ठी में कहा था कि एसएलआर बढ़ाने का मतलब होगा कि करीब 1550 करोड़ रुपये का गैर-खाद्य क्रेडिट (बैंक से लिया जाने वाला ऋण जो खाद्य से जुड़े कारोबार के लिए नहीं होता) सरकार के खाते में डाला जाए। लेकिन इस कदम से गैर-खाद्य ऋण का 14.8 प्रतिशत का अनुमानित स्तर गिरकर 10.6 प्रतिशत पर आ जाएगा।
डॉ. मनमोहन सिंह बैंकिंग प्रणाली में सुधारों की जरूरत को कितना महत्व देते थे, इसका अंदाजा 16 सितंबर 1984 को बैंक ऑफ महाराष्ट्र के स्थापना दिवस समारोह पर दिए गए उनके भाषण से लगाया जा सकता है। पुणे में उन्होंने भारत के बैंकिंग सिस्टम के लिए आने वाली चुनौतियों और जिम्मेदारियों का जिक्र किया था और 7वीं पंचवर्षीय योजना के लिए बैंकों को चर्चा करने को आमंत्रित किया था। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि इस तरह के अभ्यासों से बैंकिंग सिस्टम में ढाचांगत सुधारों, संगठनात्मक बदलावों को बल मिलेगा और इससे बैंकों को भारत के विकास कार्यों में सफलतापूर्वक अपना काम करने में मदद मिलेगी।
डॉ. मनमोहन सिंह को 14 जनवरी 1985 को ढाई साल के रिजर्व बैंक गवर्नर के कार्यकाल के बाद योजना आयोग भेज दिया गया। यह राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के करीब एक महीने बाद ही हुआ। योजना आयोग में उन्हें उपाध्यक्ष बनाया गया। यहां वे 1987 तक रहे। इसके बाद डॉ. मनमोहन सिंह जेनेवा आधारित एक स्वतंत्र आर्थिक नीति से जुड़े थिंक टैंक साउथ कमीशन में महासचिव बने। 1987 से नवंबर 1990 तक वे इसी थिंक टैंक का हिस्सा रहे।