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शोमैन की 100वीं जयंतीः पहली फिल्म बनाने के लिए नौकर से उधार लिये, लता मंगेश्कर बोलीं, कभी नहीं गाऊंगी राज के लिए गाना

मुंबईः ‘जीना यहां मरना यहां..इसके सिवा जाना कहां’, शोमैन के नाम से मशहूर राज कपूर का ये गाना उनकी असल जिंदगी पर भी बिल्कुल फिट बैठता है। महज 11 साल की उम्र में राज कपूर (Raj Kapoor) ने फिल्म ‘इंकलाब’ के साथ फिल्मी दुनिया में कदम रखा और साल 1943 में बतौर युवा अभिनेता उन्होंने ‘हमारी बात’ में काम किया था। राज कपूर की अभिनेता के तौर पर आखिरी फिल्म 1982 में वकील बाबू आई थी। 1985 में उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म राम तेरी गंगा मैली को डायरेक्ट किया था। तो चलिए आज उनकी 100वीं जयंती के मौके पर आपको उनसे जुड़े कुछ किस्सी बताते हैं।

 

राज कपूर की फिल्में नहीं चल रही थीं। फ्लॉप फिल्में परेशानी बन सकती हैं ये राज को पता था। उन्होंने पीछे हटने की जगह एक कदम आगे बढ़कर 1948 में खुद का प्रोडक्शन हाउस ‘आरके फिल्म्स’ शुरू कर दिया। पहली फिल्म बनानी शुरू की ‘आग’, खूब पैसे खर्च किए। इतने कि फिल्म पूरी होने तक यूनिट के चाय-नाश्ते के लिए नौकर से उधार लेने की नौबत आ गई।

ये अकेला किस्सा नहीं है। राज कपूर ने ‘आवारा’ बनाई, जिससे दुनिया भर में पहचान मिली। लेकिन 1970 में रिलीज हुई ‘मेरा नाम जोकर’ ने उन्हें फिर सड़क पर ला दिया। लोगों के पैसे चुकाने के लिए उन्हें पत्नी के गहने गिरवी रखने पड़े। वे डिप्रेशन में चले गए।

राज ने हार नहीं मानी और 1973 में उन्होंने ‘बॉबी’ बनाई,  जो हिट रही और इंडस्ट्री में उनका कमबैक हो गया। ‘बॉबी’ से उन्होंने बॉलीवुड को ऋषि कपूर नाम का एक नया हीरो भी दिया।

राज कपूर ने 24 साल की उम्र में प्रोडक्शन हाउस ‘आरके फिल्म्स’ की शुरुआत की थी। उन्होंने फिल्मों को डायरेक्ट करना शुरू किया और उन्हीं में एक्टिंग करने लगे। वे अपने दौर के सबसे यंग डायरेक्टर्स में से एक थे।

राज कपूर ने पहली फिल्म ‘आग’ (1948) बनाई। इसके लिए उन्होंने अपनी कार तक गिरवी रख दी। फिल्म के यूनिट को चाय-पानी और नाश्ता मुहैया कराने के लिए उन्होंने अपने नौकर से पैसे उधार लिए। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली, लेकिन इसने राज कपूर को नए डायरेक्टर के तौर पर स्थापित किया। इस फिल्म से राज और नरगिस हिंदी सिनेमा की पॉपुलर जोड़ी बन गए।

‘आग’ में राज कपूर ने ही नरगिस को साइन किया था। पहली मुलाकात में वे नरगिस को पसंद करने लगे थे। दूसरी हिट फिल्म ‘बरसात’ (1960) में भी उन्होंने नरगिस को हीरोइन चुना।

इन फिल्मों में साथ काम करने के दौरान दोनों रिलेशनशिप में आ गए। नरगिस आरके प्रोडक्शन हाउस का अहम हिस्सा भी बन गईं। उन्होंने प्रोडक्शन हाउस की कई फिल्मों में खूब पैसा भी लगाया। राज कपूर ने खुद कहा था- ‘आरके के हर सेट में नरगिस की मेहनत और लगन छिपी हुई है।’

उधर, नरगिस को एहसास हो गया कि राज उनसे शादी नहीं कर पाएंगे, वे पहले से शादीशुदा थे और अपनी पहली पत्नी को नहीं छोड़ना चाहते थे। राज दूसरी शादी कर सकें, इसकी अनुमति के लिए नरगिस ने तत्कालीन गृह मंत्री मोरारजी देसाई से भी कॉन्टैक्ट किया था। वे कानून बदलवाना चाहती थीं, लेकिन मोरारजी देसाई ने मना कर दिया। उसी वक्त उन्हें फिल्म मदर इंडिया का ऑफर मिला और इस कारण दोनों के खूबसूरत रिश्ते का अंत हो गया।

11 मार्च 1958 को नरगिस ने सुनील दत्त से शादी कर ली, लेकिन राज कपूर उन्हें भुला नहीं सके। जब कैंसर की वजह से नरगिस की मौत हुई, राज उनकी अंतिम यात्रा में शामिल भी हुए। उन्होंने काला चश्मा पहना था। वहां मौजूद लोगों का मानना था कि उन्होंने अपना दुख छिपाने के लिए काले चश्मे का सहारा लिया।

1952 में राज कपूर ने कल्ट फिल्म ‘आवारा’ बनाई जिसने दुनिया में हिंदी सिनेमा का नक्शा बदल दिया। कहते हैं कि कहानी जानने के बाद राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर इस फिल्म में काम करने के लिए राजी हो गए थे। हालांकि, जब उन्हें पता चला कि इसका हीरो और डायरेक्टर उनका बेटा है तो उन्होंने अपने कदम पीछे ले लिए। पृथ्वीराज कपूर का मानना था कि उनका बेटा अच्छी फिल्म नहीं बना सकता है। फिर लेखक ख्वाजा अब्बास अहमद के समझाने पर वे माने।

इस फिल्म में स्वतंत्रता के बाद देश में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के बारे में बात की गई थी। लोगों ने इसे बहुत पसंद किया। इस फिल्म ने सोवियत संघ से जुड़े देशों (अब रूस) में भारतीय फिल्मों के लिए रास्ता खोल दिया। तुर्की में इस फिल्म का 8 बार रीमेक बना। साल 2012 में जब टाइम मैगजीन ने दुनिया की 100 महान फिल्मों की फेहरिस्त बनाई तो उसमें एक नाम ‘आवारा’ का भी था।

जब फिल्म का मॉस्को के बड़े हॉल में प्रीमियर हुआ, तब बड़ी तादाद में फैंस राज कपूर और नरगिस को देखने पहुंचे। लोगों ने राज कपूर से दो शब्द कहने के लिए गुजारिश की, तब उन्होंने रूसी भाषा में कहा- ‘कॉमरेड्स और दोस्तों, मैं आप लोगों से बहुत प्यार करता हूं और आप भी करते हैं। अलविदा।’

एक बार फिल्म के राइटर अब्बास ने सोवियत संघ के पूर्व प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव से पूछा कि उनके देश में ‘आवारा’ को इतना क्यों पसंद किया जाता है। निकिता ख्रुश्चेव ने कहा कि रूस ने विश्व युद्ध की मार को झेला है। कई रूसी फिल्ममेकर ने युद्ध पर फिल्में बनाई हैं, लेकिन यह फिल्म त्रासदियों के बीच प्यार और उम्मीद को जिस तरह दिखाती है, वैसा शायद पहले कभी नहीं हुआ था।

रूसी जनता के इस प्यार के बदले और उनके सम्मान में राज कपूर ने फिल्म ‘श्री 420’ में एक गाना रखा जिसके बोल थे- ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।’

‘आवारा’ के बाद विदेशों में राज कपूर पॉपुलर हो गए थे। 1960 के आस-पास की बात है, जब वे ‘मेरा नाम जोकर’ बनाने की तैयारी कर रहे थे। वे फिल्म में रूसी सर्कस को रखना चाहते थे। इस सिलसिले में उन्हें लंदन से मॉस्को जाना था, लेकिन वहां का वीजा नहीं था। हालांकि फिर भी उन्हें वहां जाने की परमिशन मिल गई।

मॉस्को पहुंचकर वे एयरपोर्ट के बाहर टैक्सी का इंतजार करने लगे। तभी वहां मौजूद लोगों ने उन्हें पहचान लिया। उनकी टैक्सी आई और वे उसमें बैठ गए। अचानक उन्होंने देखा कि टैक्सी आगे नहीं बढ़ रही है बल्कि ऊपर की तरफ जा रही है। लोगों ने टैक्सी को अपने कंधों पर उठा लिया था।

फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) की कहानी राज कपूर के पास बहुत पहले से थी। हालांकि वे इस पर फिल्म बनाने से डर रहे थे। फिल्म बनाएं या नहीं, ये तय करने के लिए उन्होंने घर आने वाले लोगों को यह कहानी सुनानी शुरू कर दी और फीडबैक लेने लगे। ज्यादातर लोगों का रिस्पॉन्स पॉजिटिव रहा।

4 घंटे और 2 इंटरवल वाली इस फिल्म को बनाना आसान काम नहीं था। भव्यता को बरकरार रखने के लिए राज कपूर ने पूरी जमा-पूंजी लगा दी, लेकिन फिल्म फ्लॉप हो गई और कपूर परिवार सड़क पर आ गया।

फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप होने के बाद, जिन्होंने राज कपूर के साथ काम किया था वे अपने पैसे मांगने लगे। मजबूर होकर राज को आरके स्टूडियो, घर, बीवी के गहने गिरवी रखने पड़े। वे डिप्रेशन में भी चले गए। फिर उन्होंने फिल्म ‘बॉबी’ (1973) बनाई जो हिट रही और उनकी वापसी हुई।

इस फिल्म में ऋषि कपूर को कास्ट करते हुए उन्होंने पूछा था- क्या तुम एक फ्लॉप फिल्म एक्टर और खूब काम लेने वाले डायरेक्टर के साथ काम करना चाहते हो?

राज चाहते थे कि ‘बॉबी’ में प्राण साहब काम करें। लेकिन उनके पास फीस देने तक के पैसे नहीं थे। यह बात उन्होंने प्राण साहब को बताई। प्राण साहब ने कहा कि वे बिना पैसे लिए इसमें काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन राज कपूर ने मना कर दिया। उनका कहना था कि बिना फीस के वे किसी को फिल्म में कास्ट नहीं करेंगे। तब उनकी मजबूरी समझ कर प्राण एक रुपए फीस लेकर इसमें काम करने के लिए राजी हो गए।

फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। प्राण को एक लाख रुपए का चेक दिया गया। उन्हें ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आई, उन्हें लगा कि वह इससे ज्यादा फीस डिजर्व करते थे और उनके साथ ठगी हुई है। इस घटना के बाद उन्होंने ताउम्र राज कपूर के साथ काम नहीं करने का फैसला किया।

राज कपूर लोगों के किरदार और उनके विचार से बहुत प्रभावित होते थे। उन्होंने कई फिल्में इसी तरह बनाईं। जैसे कि एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू और राज कपूर ने मुलाकात की। उन्होंने चिंता जाहिर कि बच्चों के लिए कोई फिल्म नहीं बनती है। अगर ऐसी फिल्म बनेगी तो वे कुछ समय शूटिंग सेट पर मौजूद रहेंगे। इसके बाद ही राज कपूर ने फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) बनाई।

इसी तरह उन्होंने लता मंगेशकर से प्रभावित होकर कल्ट क्लासिक फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (1978) बनाई थी। दरअसल, वे चाहते थे कि लता जी की सुंदर आवाज को थीम बनाकर एक फिल्म बनाई जाए। फिल्म में राज ने मेन कैरेक्टर एक ऐसी लड़की को रखा जिसकी आवाज तो खूबसूरत थी, लेकिन सूरत अच्छी नहीं थी। ये लड़की एक खूबसूरत लड़के को जाल में फंसाती है। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ फिल्म की यही कहानी है।

राज कपूर को खाने का बहुत शौक था। बढ़ती उम्र के साथ उनका वजन भी बढ़ गया था। 1980 के आस-पास की बात है, जब चीन के साथ भारत के रिश्ते अच्छे नहीं थे। लेकिन फिर भी चीन ने भारत से अनुरोध किया कि वे राज कपूर को उनके देश मेहमान के तौर पर भेजें।

इस मुद्दे पर जब विदेश मंत्रालय ने राज कपूर से बात की, तो वे खुशी से झूम उठे, क्योंकि उन्हें चाइनीज खाना बहुत पसंद था। उन्होंने यह बात पत्नी कृष्णा को बताई कि उन्हें भी साथ चलना है। हालांकि कुछ दिन बाद वे थोड़े उदास हो गए। जब पत्नी ने उनसे उदासी की वजह पूछी तो उन्होंने कहा, ‘मैं अब चीन नहीं जाना चाहता। वहां के लोगों ने 50 के दशक के राज कपूर को देखा होगा जो यंग और सुंदर लड़का था। अभी मैं बूढ़ा हो गया हूं, वजन भी बढ़ गया है। मैं अपना यह रूप दिखाकर वहां के लोगों का दिल नहीं तोड़ना चाहता हूं।’ यही वजह रही कि वे कभी भी चीन नहीं गए।

राज कपूर की एक खासियत थी जो उन्हें बाकी फिल्ममेकर से अलग बनाती थी। वे सेट पर मौजूद हर क्रू मेंबर को बहुत तवज्जो देते थे। हर शख्स का नाम उन्हें याद रहता था। एक बार वे फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ (1985) की शूटिंग कर रहे थे। तभी वहां मौजूद स्पॉटबॉय लक्ष्मण ने कहा, ‘इस शॉट को क्रेन की मदद से कैप्चर करना चाहिए।’

फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में राज कपूर के सबसे छोटे बेटे राजीव लीड रोल में थे। इस फिल्म से उन्होंने मंदाकिनी को लॉन्च किया था। 1985 की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही थी।
फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में राज कपूर के सबसे छोटे बेटे राजीव लीड रोल में थे। इस फिल्म से उन्होंने मंदाकिनी को लॉन्च किया था। 1985 की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही थी।

कहानी के साथ-साथ राज कपूर की फिल्मों के गाने भी अहम होते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए हिंदी सिनेमा को कई सदाबहार गाने दिए हैं। उन्होंने खुद इस बात का खुलासा किया था कि वे संगीतकार बनना चाहते थे। शुरुआती फिल्में ‘जेल यात्रा’, ‘चितौड़ विजय’ और ‘गोपीनाथ’ में उन्होंने गाने गाए थे। उन्होंने तीन साल शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी ली थी।

1949 की फिल्म ‘बरसात’ से लता दीदी उनकी फिल्मों में अपनी आवाज देती आई थीं। लेकिन संगीत की ही वजह से दोनों में दूरी आ गई। दरअसल, राज कपूर चाहते थे कि उनकी फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में लता दीदी के भाई हृदयनाथ मंगेशकर संगीत दें। हालांकि हृदयनाथ उनकी फिल्म में काम नहीं करना चाहते थे, लेकिन बहन के कहने पर मान गए।

इसी समय लता दीदी, सिंगर मुकेश के साथ अमेरिकी दौरे पर गई थीं। वहां उन्होंने मुकेश को कहते हुए सुना कि हृदयनाथ की पिक्चर गई। यह सुनते ही उन्होंने झट से भाई को फोन किया और मामले के बारे में पूछा। हृदयनाथ ने कहा कि समाचार पत्रों में लिखा है कि मुझे इस फिल्म से निकाल दिया गया है और मेरी जगह लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल काम कर रहे हैं।

यह सुनते ही लता दीदी आग बबूला हो गईं। उन्होंने राज कपूर के साथ लड़ाई शुरू कर दी और यह भी कह दिया- मैं आपके साथ कभी काम नहीं करूंगी।

मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। उन्होंने राज कपूर को अलग ढंग से परेशान कर दिया। उन्होंने उन गानों की रॉयल्टी की मांग की, जिन्हें वे गाएंगी। जब यह बात गीतकार नरेंद्र शर्मा को पता चली तो उन्होंने लता दीदी से बात की। उन्होंने कहा- सिर्फ तुम ही राज कपूर के गानों के साथ न्याय कर सकती हो।

नरेंद्र शर्मा की बातों को वे नकार नहीं सकती थीं क्योंकि वे उन्हें पिता समान मानती थीं। आखिरकार उन्होंने अपना फैसला बदल दिया और आरके फिल्म्स के लिए दोबारा गाना शुरू किया।

राज कपूर अस्थमा के मरीज थे। जिंदगी के आखिरी समय में उन्हें बार-बार अस्थमा अटैक आते थे। हालांकि फिर भी उन्होंने काम करना जारी रखा। वे फिल्म ‘हिना’ की शूटिंग कर रहे थे। इसी साल उन्हें 19वें दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड में सम्मानित किया जाना था। हालत बिल्कुल ठीक नहीं थी। फिर भी वे इस समारोह का हिस्सा बने।

बीमार और लगभग न चल-फिर पाने की हालत में वे समारोह में पहुंचे। कुछ समय बाद सम्मान के लिए राज कपूर का नाम पुकारा गया। नियम के अनुसार उन्हें स्टेज पर जाकर अवॉर्ड लेना था, लेकिन वे उठ नहीं सके। खुद भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने अपना प्रोटोकॉल तोड़ा और सम्मान लेकर राज कपूर की कुर्सी तक पहुंचे। उन्हें अवॉर्ड दिया। इसी दौरान उन्हें अस्थमा अटैक आया। ऑडिटोरियम से राष्ट्रपति की एम्बुलेंस में ही उन्हें AIIMS ले जाया गया।

कुछ देर बाद उनकी हालत फिर से बिगड़ने लगी। डॉक्टरों ने उन्हें ICU में शिफ्ट किया। उस वक्त उनके साथ वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सरदाना भी मौजूद थे, जिन्हें डॉक्टरों ने जाने के लिए कहा, लेकिन राज कपूर ने उन्हें रोक लिया।

गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) में जाने से पहले राज कपूर ने सरदाना से कहा, ‘अब मैं ठीक नहीं हो पाऊंगा। आई विल डाई…’ ये वो आखिरी शब्द थे, जो राज कपूर ने कहे थे। शायद उन्हें अपनी मौत का आभास हो गया था। कुछ समय बाद वे कोमा में चले गए। ठीक एक महीने बाद 2 जून 1988 को वे भारतीय सिनेमा के शोमैन दुनिया से चल बसे।

 

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