संवाददाता: संतोष कुमार दुबे
दिल्ली: राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है, लेकिन इससे आपको भयभीत होने की जरूरत नहीं है… इन्हीं शब्दों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 50 साल पहले आपातकाल लागू करने की घोषणा की थी। इंदिरा के इस ऐलान के कुछ घंटे पहले ही 25 और 26 जून की रात आपातकाल के आदेश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद दस्तखत कर चुके थे। 25 जून 1975 को लागू हुआ आपातकाल 21 महीने यानी 21 मार्च 1977 तक रहा।
आपातकाल क्यों लगाया गया था : आपातकाल की मुख्य वजह 12 जून 1975 को आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को बताया जाता है। दरअसल 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने रायबरेली सीट से राज नारायण को हराया था, लेकिन राजनारायण ने हार नहीं मानी और चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट चले गए। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। इंदिरा गांधी पर वोटरों को घूस देने, सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल जैसे 14 आरोप लगे थे। कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी पर विपक्ष ने इस्तीफे का दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। आपातकाल के जरिए इंदिरा गांधी ने उसी विरोध को शांत करने की कोशिश की।
आपातकाल में क्या हुआ: आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी की गई। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस सहित बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया गया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था।
चलिए अब आपको बताते हैं कि आपातकाल लागू होने से पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में क्या हुआ था। तारीख 12 जून 1975 को पूरे देश की नजरें यहां के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा पर टिकी थीं। जस्टिस सिन्हा इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामले में अपना फैसला सुनाने वाले थे। ये मामला साल 1971 के चुनावों से जुड़ा था। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने रायबरेली से राजनारायण को हराया था। हारने के बाद राजनारायण ने चुनावी नतीजों को कोर्ट में चुनौती दी थी।
उन्होंने इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग, चुनाव में घोटाले और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था और मांग की थी कि ये चुनाव रद्द किया जाए। 12 जून की सुबह करीब 10 बजे जस्टिस सिन्हा अपने चैंबर से कोर्ट रूम में आए और अपना फैसला सुनाने लगे।
फैसले में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली का दोषी करार दिया और चुनाव रद्द कर दिया। साथ ही जस्टिस सिन्हा ने ये भी कहा कि आने वाले 06 सालों तक इंदिरा चुनाव नहीं लड़ सकेंगी। ऐसा पहली बार हुआ था कि भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव ही रद्द कर दिया गया।
इंदिरा गांधी किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थी। उन्होंने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया। 23 जून को इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को रोकने के लिए याचिका दायर की। अगले ही दिन जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि वे हाईकोर्ट के फैसले पर पूरी तरह रोक नहीं लगाएंगे, लेकिन इंदिरा प्रधानमंत्री पद पर बनीं रह सकती हैं। साथ ही ये भी कहा कि इस दौरान वे संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं, लेकिन वोट नहीं कर सकेंगी।
सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को थोड़ी राहत जरूर दी, लेकिन इंदिरा के लिए ये काफी नहीं थी। इंदिरा गांधी के पास ये विकल्प था कि वे किसी और को प्रधानमंत्री बना सकती थीं, लेकिन कहा जाता है कि संजय गांधी इस बात के लिए राजी नहीं थे।
एक तरफ इंदिरा गांधी को कोर्ट से राहत नहीं मिली थी, दूसरी तरफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पूरा विपक्ष सड़कों पर उतर कर इंदिरा के इस्तीफे की मांग कर रहा था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद तो विपक्ष और आक्रामक हो गया था। 24 जून को फैसला आया और 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली का आयोजन किया।
इस रैली में लाखों की तादाद में भीड़ जुटी जिसे संबोधित करते हुए जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता का अंश पढ़ते हुए कहा – ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’। जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की।
इंदिरा गांधी अब चौतरफा घिर चुकी थीं। इधर जेपी की रैली खत्म हुई और उधर इंदिरा गांधी राष्ट्रपति भवन पहुंचीं। 25-26 जून की दरमियानी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के आदेश पर दस्तखत करा लिए। 26 जून सुबह 6 बजे कैबिनेट की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। अभी तक देश को इस फैसले की भनक तक नहीं थी। इंदिरा गांधी ने ये फैसला लेने से पहले अपने मंत्रिमंडल से सलाह तक नहीं ली थी।
करीब आधे घंटे चली कैबिनेट बैठक के बाद इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर देश में इमरजेंसी लगाने की घोषणा की। इसके साथ ही आजाद भारत के इतिहास के सबसे बुरे दौर की शुरुआत हो गई। विपक्षी नेताओं समेत कांग्रेस के नेताओं को भी जेल में डाल दिया गया, प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई, नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए गए और देश में लोकतंत्र खत्म हो गया।
अगले दिन देश में अखबार नहीं छप पाए, क्योंकि सरकार ने अखबार के दफ्तरों की बिजली काट दी थी। जो अखबार छप रहे थे, उन पर सख्त पाबंदिया लगाई गईं। अखबारों में क्या छपेगा क्या नहीं, इसके लिए सरकार ने अखबारों के दफ्तर में अफसरों को तैनात कर दिया। इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के छोटे बेटे संजय गांधी ने नसबंदी प्रोग्राम चलाया, जिसमें पकड़-पकड़कर लोगों की नसबंदी की गई। लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया। पूरा देश एक बड़ी जेल बन गया। इस दौरान इंदिरा गांधी ने नए-नए कानून लाकर संविधान को कमजोर करने की कोशिश भी की।
इस भयंकर त्रासदी को पूरा देश 21 महीनों तक झेलता रहा। जनवरी 1977 में घोषणा की गई कि 16 मार्च को देश में चुनाव होंगे। देश में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी को जनता ने इमरजेंसी का सबक सिखा दिया। इंदिरा और संजय गांधी दोनों चुनाव हार गए। इसके बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हो गया, लेकिन ये देश का सबसे काला वक्त साबित हुआ, जिसका दर्द लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है।