मुंबईः आज 05 फरवरी यानी भारत रत्न स्वर कोकिला लता मंगेशर की पुण्य तिथि है। एक साल पहले आज के ही दिन यानी 06 फरवरी 2022 को लता दीदी ने 92 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा दिया था। लता दीदी से एक इंटरव्यू में जब पूछा गया था कि क्या दोबारा जन्म मिले तो फिर से लता मंगेशकर ही बनना चाहेंगी? इसके जवाब में उन्होंने कहा था कि अगर वाकई मुझे दोबारा जन्म मिला तो मैं लता मंगेशकर कभी नहीं बनना चाहूंगी क्योंकि लता मंगेशकर की जो तकलीफें हैं, वह मैं ही जानती हूं।
स्वर कोकिला लता मंगेशकर के निधन को आज एक साल पूरा हो गया। सालों पहले दिए अपने इंटरव्यू में उनके पूरे जीवन का संघर्ष इस एक जवाब में था। 50 हजार से ज्यादा गाने गाए, संगीत की दुनिया की सर्वोच्च शख्सियत बनीं, कोई ऐसा सम्मान नहीं था, जो उन्हें ना मिला हो, लेकिन फिर भी वह दोबारा लता मंगेशकर नहीं बनना चाहती थीं।
लता दीदी ने बचपन से लेकर आखिरी सांस तक उन्होंने तकलीफें और संघर्ष देखा। कम उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया तो घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली। चंद पैसे बचाने के लिए वो मीलों तक पैदल चल कर रिकॉर्डिंग स्टूडियो जाती थीं, ताकि जो पैसे बचें उससे सब्जी-तरकारी का इंतजाम हो जाए। ऐसे अनेकों किस्से हैं, जो उनकी जिंदगी में मुश्किलों को दिखाते हैं, साथ ही ये भी दिखाते हैं कि हर बार किस जीवटता के साथ उन्होंने उन परेशानियों को हराया। तो चलिए आज उनकी पुण्यतिथि के मौके पर उनकी जिंदकी के कुए ऐसे ही किस्से आपको बताते हैं…
कभी रिलीज नहीं हुआ करियर का पहला गानाः साल 1942 में एक फिल्म बनी थी किती हसाल। इस फिल्म के संगीतकार सदाशिवराव निवरेकर लता दीदी के पिता के बहुत अच्छे दोस्त थे। इस फिल्म के लिए वह लता की आवाज में एक गाना चाहते थे। उन्होंने ये बात जब पिता दीनानाथ को बताई तो उन्होंने मना कर दिया। वह नहीं चाहते थे कि लता दीदी कभी भी फिल्म इंडस्ट्री में काम करें। निवरेकर ने उन्हें अपनी दोस्ती की कसम देकर लता को गाने के लिए मना लिया। लता ने उस फिल्म का गाना गाया, लेकिन बाद में वह फिल्म भी रिलीज नहीं हुई और ना ही गाना।
25 रुपए थी लता दीदी की पहली फीसः इसके कुछ समय बाद अप्रैल 1942 में लता दीदी के पिता का निधन हो गया। उनके चले जाने से परिवार की पूरी जिम्मेदारी छोटी उम्र की लता के कंधे पर आ गई। इसी दौरान मास्टर विनायक ने उन्हें अपनी मराठी फिल्म पहिली मंगला गौर के लिए अप्रोच किया। पैसों की जरूरत थी तो उन्होंने हां कर दी और फिल्म में एक छोटा सा रोल भी किया। साथ में उन्होंने फिल्म के गाने नटली चैत्राची नवलाई गाना भी गाया। इस गाने के लिए उन्हें 25 रुपए फीस मिली थी और फिल्म में रोल के लिए कुल 300 रुपए। इसके बाद उन्होंने मास्टर विनायक की कंपनी में काम किया।
पैसों की कमी के कारण आई थी घर खाली करने की नौबतः लता दीदी जब परिवार के साथ कोल्हापुर आईं, तो मास्टर विनायक के दिए हुए एक मकान में रहती थीं। 1947 में मास्टर विनायक का निधन हो गया। इसके बाद उनके रिश्तेदारों ने लता पर घर खाली करने का दबाव डालना शुरू कर दिया।
इसी बीच एक कैमरामैन लता दीदी से मिलने आए। उन्होंने कहा कि एक हरिश्चंद्र बाली हैं, जो आपसे मिलकर आप का गाना सुनना चाहते हैं। अगले दिन उन्होंने जाकर उनसे मुलाकात कीं। उन्होंने लता को सुना और गाना गाने का मौका दिया। इसके बदले उन्होंने लता को 14 हजार रुपए दिए थे। उसी पैसे को लता ने घर के किराए के रूप में दिया। फिर जाकर उन्हें उस घर में रहने दिया गया।
आवाज पतली कहकर लता दीदी को रिजेक्ट किया गयाः भारत रत्न लता दीदी जब हरिश्चंद्र बाली के फिल्म के गाने को रिकॉर्ड कर रहीं थीं, तभी एक पठान ने उनकी आवाज सुनी। बिना रुके ही वो शख्स चला गया गुलाम हैदर अली से मिलने। पठान ने उनसे कहा कि कोई एक नई लड़की आई है, जो बहुत ही उम्दा गाती है। आप उसे बुलाकर एक बार जरूर सुनें। मास्टर गुलाम हैदर अली ने मिलने के लिए हामी भर दी।
लता दीदी के पास मास्टर हैदर अली से मिलने का मैसेज आया। अगले दिन वह अपनी मौसेरी बहन के साथ मास्टर गुलाम हैदर अली के स्टूडियो मिलने गईं। वहां पर वह सुबह से शाम तक उनका इंतजार करती रहीं। आखिरकार उनकी मुलाकात मास्टर हैदर अली से हुई। उन्होंने इतना लंबा इंतजार कराने के लिए माफी मांगी, फिर गाना सुनाने को कहा। वह लता से बहुत प्रभावित हुए।
मास्टर हैदर अली ने लता की मुलाकात प्रोड्यूसर शशधर मुखर्जी से करवाई, जो उस समय फिल्म शहीद पर काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने लता को काम देने से इनकार कर दिया। मुखर्जी ने कहा, “इस लड़की की आवाज बहुत पतली है। इस पर मास्टर हैदर अली ने कहा- आने वाले दिनों में प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इस लड़की के पैरों में गिरकर अपनी फिल्म में गाना गाने की विनती करेंगे।“ इसके बाद 1948 में मास्टर हैदर अली ने लता को फिल्म मजबूर का गाना दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का ना छोड़ा दिया जो उनके लिए बड़ा ब्रेक साबित हुआ।
लता दीदी ने 1948 में फिल्म महल का गाना आएगा आने वाला गाया था। इस गाने को मधुबाला पर फिल्माया गया था। ये वही गाना था जिसने लता दीदी को हिंदी सिनेमा में बतौर सिंगर पहचान दिलवाई।
पैसे की कमी की वजह से पैदल जाती थीं स्टूडियोः लता दीदी करियर के शुरुआती दिनों में घर से रिकॉर्डिंग स्टूडियो पैदल जाती थीं। गानों की रिकॉर्डिंग करने के बाद वो खाली टाइम में भी रिकॉर्डिंग स्टूडियो में बैठी रहती थीं। दिन भर बिना कुछ खाए वो पूरे दिन गुजारतीं थीं। वजह ये थी कि उन्हें पता ही नहीं था कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में भी कैंटीन होता है। दूसरी वजह ये भी थी कि उनके पास पैसे कम होते थे। उनके पास एक या दो रुपए होते थे इसलिए घर से भी वो स्टूडियो पैदल जातीं, ताकि उन बचे हुए पैसों से वो घरवालों के लिए सब्जी खरीद सकें। उनका मानना था कि वो भले ही भूखी रहें, लेकिन घरवालों को बिना खाए ना सोना पड़े।
दिलीप कुमार ने मारा ताना, तो लता दीदी ने सीखी उर्दूः लता दीदी एक दिन संगीतकार अनिल बिस्वास और दिलीप कुमार के साथ लोकल ट्रेन से गोरेगांव जा रही थीं। अनिल बिस्वास ने दिलीप कुमार से लता का परिचय कराते हुए कहा, “दिलीप ये लता मंगेशकर है और ये बहुत अच्छा गाती है।“ इस पर दिलीप कुमार ने पूछा कि ये कहां की है। अनिल बिस्वास ने बताया कि ये मराठी है।मराठी शब्द सुनते ही दिलीप कुमार ने अपना चेहरा अजीब सा बना कर कहा, “क्या है ना मराठी लोगों की बोली में थोड़ी दाल-भात की बू (मराठी लोगों को उर्दू नहीं आती हैं) होती है।“ उनकी ये बात लता दीदी को बहुत बुरी लगी। इसके बाद उन्होंने उर्दू सीखने की ठानी और सीख भी ली।
कभी नहीं सुनती थी खुद के गाए गानें..लता दीदी से जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर है कि वह अपने गाए हुए गानों को नहीं सुनती थीं। उनका मानना था कि अगर वह खुद गानों को सुनेंगी, तो उसमें 100 कमियां तो जरूर मिलेंगीं।
मधुमति के लिए मिला पहला अवॉर्डः भारत रत्न लता मंगेशकर को करियर का पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड 1958 की फिल्म मधुमति के गाने आजा रे परदेसी के लिए मिला था। इस गाने को सलिल चौधरी ने कम्पोज किया था। उन्हें दूसरा फिल्मफेयर मिला था कहीं दीप जले कहीं दिल के लिए जो उन्होंने फिल्म बीस साल बाद के लिए गाया था।
लता दीदी को जहर देकर मारने की कोशिशः लता दीदी 33 साल की उम्र में स्वर कोकिला बन चुकी थीं। और किसी को उनकी शोहरत तथा तरक्की से इतनी जलन थी कि उन्हें जहर देकर मारने की कोशिश की। ये लता की जिंदगी का सबसे कठिन और भयानक दौर था। इस वजह से उन्हें 03 महीने तक बेड पर रहना पड़ा। शरीर इस कदर कमजोर हो गया था कि वह बेड से उठ भी नहीं पाती थीं, चलना तो दूर की बात थी। उनके इस कठिन समय में मजरूह सुल्तानपुरी उनका सहारा बने। मजरूह दिनभर अपना काम करके शाम को लता के पास जाकर उनको कविताएं सुनाया करते थे और उनका मन बहलाया करते थे।
लता दीदी ने एक बार अपने इस कठिन समय को याद करते हुए कहा था, “अगर मजरूह इस मुश्किल वक्त में मेरे साथ ना होते, तो शायद मैं इस मुश्किल दौर से ना उबर पाती।“ अफवाह ये भी थी कि इस हादसे की वजह से लता दीदी ने अपनी आवाज खो दी थी। हालांकि बाद में उन्होंने इस बात का खंडन करते हुए कहा था कि मैंने अपनी आवाज कभी नहीं खोई थी। जिस शख्स ने लता दीदी को जहर दिया था, उसके बारे में उन्हें चल गया था। उस शख्स के खिलाफ उनके पास पुख्ता सबूत नहीं था। जिस वजह से उसके खिलाफ पुलिस कार्रवाई न हो सकी। लता दीदी ने लंबे इलाज के बाद गाना कहीं दीप जले कहीं दिल गाया था। इस गाने की रिकॉर्डिंग ठीक से हो गई। बाद में उन्हें इस गाने के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला।
क्लासिकल सिंगर ना बन पाने का मलालः पिता के निधन के बाद घर पर सभी जिम्मेदारियां लता दीदी के कंधे पर आ गई थीं, जिस वजह से उन्होंने फिल्मों में बतौर एक्टर और सिंगर काम करना शुरू कर दिया। इस वजह से उन्हें क्लासिकल संगीत का रियाज करने का पर्याप्त समय नहीं मिलता था। इस वजह से क्लासिकल संगीत उनसे पूरी तरह छूट गया। करियर की ऊंचाइयों पर पहुंच जाने के बाद भी उन्हें इस बात का मलाल रहा कि वो एक क्लासिकल सिंगर ना बन सकीं।
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