दिल्लीः बिहार में जातिगण मतगणना के कार्य जारी रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में हो रहे जातिगत सर्वे पर रोक लगाने इनकार कर दिया है। कोर्ट ने इस संबंध में दायकर की गई याचिकाओं को शुक्रवार को खारिज कर दिया। हालांकि शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं को संबंधित उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने और कानून के अनुसार उचित कदम उठाने की अनुमति दी है। आपको बता दें कि बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने बीती 06 जून को जातीय जनगणना की अधिसूचना जारी कर दी थी। इस सर्वे के लिए 500 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया है। इस सर्वे के दौरान संबंधित लोगों की आर्थिक स्थिति का भी सर्वेक्षण कराया जाएगा।

आपको बता दें कि विपक्षी दलों के नेता केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं। हालांकि, केंद्र की मोदी सरकार इससे इनकार करती रही है। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय लोकसभा में भी इस तरह की जनगणना से कई बार इनकार कर चुके हैं।

तो चलिए अब आपको बिहार में हो रहे जातिगत सर्वे के बारे और इसे किस आधार पर कोर्ट में चुनौती दी गई थी? इसे जातिगत जनगणना क्यों नहीं कहा जा रहा है? क्या पहले भी किसी राज्य ने इस तरह का सर्वे किया है? आखिरी बार इस तरह की जनगणना कब हुई थी? सबसे पहले कब जातिगत जनगणना की मांग हुई है? केंद्र सरकारें जातिगत जनगणना से क्यों कतराती हैं?

सबसे पहले बात करते हैं कोर्ट में चुनौती की… बिहार में रहे जातिगत सर्वे के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया था कि जातीय सर्वे का नोटिफिकेशन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है। याचिका में जातीय सर्वे की अधिसूचना को खारिज करने की मांग की गई थी। बिहार के रहने वाले अखिलेश कुमार और हिंदू सेना नामक संगठन ने बिहार सरकार के जातीय सर्वे के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। इस याचिका में आरोप लगाया गया था कि जातिगत जनगणना कराकर बिहार सरकार देश की एकता और अखंडता को तोड़ना चाहती है।

 

क्यों कहा जा रहा है जातिगत सर्वेः आपको बता दें कि जनगणना केंद्र सरकार द्वारा कराई जाती है। केंद्र सरकार ही जातिगत जनगणना करा सकती है। केंद्र सरकार की ओर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनगणना कराई जाती है। पिछड़ी और अन्य जातियों की जातिगत जनगणना आजादी के बाद कभी नहीं कराई गई। राज्य सरकारें जनगणना नहीं करा सकती हैं। इसलिए राज्य सरकार इसे सर्वे का नाम देती हैं।

 

क्या किसी राज्य में पहले किया है सर्वेः इसका उत्तर हां है।  बिहार से पहले कर्नाटक में भी इस तरह का सर्वे हुआ था। साल 2014 में उस वक्त की सिद्धारमैया सरकार ने जातीय सर्वे किया था। इसका नाम सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे दिया गया था। 2017 में इसकी रिपोर्ट आई, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया।

दरअसल, अपने समुदाय को OBC या SC/ST में शामिल कराने के लिए जोर दे रहे लोगों के लिए यह सर्वे बड़ा मौका बन गया। अधिकतर ने उपजाति का नाम जाति के कॉलम में दर्ज कराया। इसके चलते कर्नाटक में अचानक 192 से अधिक नई जातियां सामने आ गईं। लगभग 80 नई जातियां तो ऐसी थीं, जिनकी जनसंख्या 10 से भी कम थी।

एक तरफ OBC की संख्या में भारी वृद्धि हो गई, तो दूसरी तरफ लिंगायत और वोक्कालिगा जैसे प्रमुख समुदाय के लोगों की संख्या घट गई। उसके बाद बनी जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार और वर्तमान भाजपा सरकार ने 150 करोड़ खर्च कर बनी इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

आखिरी बार देश में कब हुई थी जातिगत जनगणनाः भारत में जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। पहली बार हुई जनगणना में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे। इसके बाद हर दस साल पर जनगणना होती रही। 1931 तक की जनगणना में हर बार जातिवार आंकड़े भी जारी किए गए। 1941 की जनगणना में जातिवार आंकड़े जुटाए गए थे, लेकिन इन्हें जारी नहीं किया गया। आजादी के बाद से हर बार की जनगणना में सरकार ने सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ही जाति आधारित आंकड़े जारी किए। अन्य जातियों के जातिवार आंकड़े 1931 के बाद कभी प्रकाशित नहीं किए गए।

 

क्या है जातिगत जनगणना की जरूरतः भारत 1947 में आजाद हुआ। 1951 में आजाद भारत में पहली बार जनगणना हुई। 1951 से 2011 तक हुई सभी 7 जनगणनाओं में एससी और एसटी की जातीय जगनणना हुई, लेकिन पिछड़ी व अन्य जातियों की जाति आधारित जनगणना कभी नहीं हुई। 1990 में उस वक्त की वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करके पिछड़ों को आरक्षण दिया। उस वक्त भी 1931 की जनगणना को आधार मानकर ही आरक्षण की सीमा तय की गई। 1931 में देश में पिछली जातियां कुल आबादी का 52 फीसदी थीं।

कई एक्सपर्ट मानते हैं कि मौजूदा समय में देश की कुल आबादी में पीछड़ी जातियों की संख्या कितनी है इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है। एक्सपर्ट्स का कहना है कि एससी और एसटी वर्ग के आरक्षण का आधार उनकी आबादी है, लेकिन ओबीसी आरक्षण का आधार 90 साल पुरानी जनगणना है। जो अब प्रासंगिक नहीं है। अगर जातिगत जनगणना होती है तो इसका एक ठोस आधार होगा। जनगणना के बाद उसकी संख्या के आधार पर आरक्षण को कम या ज्यादा करना पड़ेगा।

जातिगत जनगणना की मांग करने वालों का दावा है कि ऐसा होने के बाद पिछड़े-अति पिछड़े वर्ग के लोगों की शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थिति का पता चलेगा। उनकी बेहतरी के लिए उचित नीति का निर्धारण हो सकेगा। सही संख्या और हालात की जानकारी के बाद ही उनके लिए वास्तविक कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी। वहीं, इसका विरोध करने वाले कहते हैं कि इस तरह की जनगणना से समाज में जातीय विभाजन बढ़ जाएगा। इसकी वजह से लोगों के बीच कटुता बढ़ेगी।

क्या है केंद्र सरकार का क्या रुखः केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 2021 के बजट सत्र में राज्यसभा और मानसून सत्र में लोकसभा में इस तरह की जनगणना से इनकार किया। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने सदन में कहा है कि हर बार की तरह इस बार भी केवल SC और ST समुदाय की जातिगत जनगणना होगी। इसके बाद 2022 के शीतकालीन सत्र और मानसून सत्र में भी इससे जुड़े सवालों पर गृह राज्य मंत्री ने सरकार का रुख साफ किया। हर बार गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा कि फिलहाल इस तरह की जनगणना करने की सरकार की कोई योजना नहीं है।

हालांकि, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में सरकार का रुख ऐसा नहीं था। 31 अगस्त 2018 को उस वक्त के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 2021 की जनगणना की तैयारियों पर एक मीटिंग की थी। इस मीटिंग के बाद PIB ने जानकारी दी थी कि इस बार की जनगणना में OBC की गणना के बारे में सोचा जा रहा है।

जब भाजपा विपक्ष में थी तब उसके ही नेताओं का रुख कुछ और था। 2011 की जनगणना से पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने जातिगत जनगणना की मांग की थी। उन्होंने 2010 में संसद में कहा था कि अगर हम 2011 की जनगणना में OBC की गणना नहीं करेंगे, तो हम उन पर अन्याय करेंगे।

जातिगत जनगणना से क्यों कतरा रही है केंद्र सरकार… विशेषज्ञों का मानना है कि मंडल कमीशन के बाद की राजनीति में बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा। बिहार में राजद और जदयू तो उत्तर प्रदेश में सपा ने ओबीसी के मसले को उठाया। इन पार्टियों को ओबीसी वोटरों का समर्थन भी मिला। लेकिन, अब ये रुझान बदला है।

पिछले कुछ चुनावों से ओबीसी वोटरों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है। इसलिए भाजपा ने भले ही ओबीसी पर अपनी पहुंच बनाकर चुनावी लाभ ले लिया हो, लेकिन इनके बीच उसका समर्थन उतना मजबूत नहीं है, जितना कि उच्च वर्ग और उच्च जातियों के बीच है।

विशेषज्ञों के मुताबिक बीजेपी का जातिगत गणना से कतराने का मुख्य कारण यह डर है कि अगर जातिगत गणना हो जाती है, तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटे में बदलाव के लिए सरकार पर दबाव बनाने का मुद्दा मिल जाएगा। संभव है कि ओबीसी की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो।

यह मंडल-2 जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकता है और भाजपा को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय पार्टियों को नया जीवन भी। यह डर भी है कि ओबीसी की संख्या भानुमती का पिटारा खोल सकती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा।

सबसे पहले कब उठी थी मांग… इसकी मांग लगभग हर जनगणना से पहले उठती है। ये मांग अक्सर उन नेताओं की ओर से उठाई जाती है जो OBC के होते हैं। वहीं, ऊंची जाति के नेता इस तरह की मांग का विरोध करते हैं। इस बार भी नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, मुकेश सहनी जैसे नेता ये मांग कर रहे हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र भाजपा नेता पंकजा मुंडे ने भी 24 जनवरी 2022 को एक ट्वीट करके इस तरह मांग की थी। एक अप्रैल 2022 को राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने भी सरकार से 2021 की जनगणना में OBC आबादी की गणना कराने की मांग की थी।

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