काठमांडूः पड़ोसी मुल्क नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड अगले प्रधानमंत्री होंगे। आपको बता दें कि राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने सभी पार्टियों से कहा था कि वे रविवार तक सरकार गठन पर आखिरी फैसला कर लें। इसके बाद रविवार को दोपहर बाद प्रचंड की पार्टी माओइस्ट सेंटर पार्टी ने पांच दूसरे दलों के साथ गठबंधन का ऐलान किया।
समझौते के तहत शुरुआती ढाई साल तक प्रचंड पीएम रहेंगे। इसके बाद CPN-UML सत्ता संभालेगी। इसका आशय यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली एक बार फिर प्रधानमंत्री बनेंगे। विशेष बात यह ये दोनों ही नेता चीन समर्थक माने जाते हैं। प्रचंड और ओली राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पास पहुंचे और सरकार बनाने का दावा पेश किया।
इसके पहले प्रचंड ने सत्ताधारी नेपाली कांग्रेस को समर्थन देने से इनकार कर दिया। साथ ही इस गठबंधन को छोड़ भी दिया। आपको बता दें कि दो साल पहले प्रचंड ओली सरकार का हिस्सा थे। इसके बाद उन्होंने अपने 7 मंत्रियों से इस्तीफे दिलाए और ओली को कुर्सी छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
प्रचंड ने क्यो तोड़ा गठबंधनः दरअसल, पूरा मामला सत्ता पाने की खींचतान से जुड़ा है। नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-माओवादी मिलकर सरकार तो बनाने के लिए तैयार थे, लेकिन बारी-बारी से प्रधानमंत्री का पद चाहते थे। प्रचंड की पार्टी चाहती है कि दोनों ही पार्टियां ढाई-ढाई साल के लिए सरकार चलाएं।
खबरों के मुताबिक, नेपाली कांग्रेस इसके लिए तैयार भी हो गई थी। इसमें दिक्कत तब आई जब सीपीएन ने नई शर्त यह रखी कि वह पहले सरकार चलाएगी। यानी वर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा से पहले प्रचंड प्रधानमंत्री बनें।
नेपाली कांग्रेस सीपीएन का रिकॉर्ड देखते हुए उस पर भरोसा करने तैयार नहीं थी। लिहाजा, आशंका ये थी कि कहीं ढाई साल सत्ता में रहने के बाद सीपीएन कोई बहाना बनाकर समर्थन वापस न ले ले। यहीं आकर पेंच फंसा। इसके बाद प्रचंड ने ओली की तरफ हाथ बढ़ा दिया।
आपको बता दें कि शेर बहादुर देउबा के लिए रास्ता मुश्किल था। देउबा चाहते थे कि अभी जैसे सरकार चल रही है, वैसे ही आगे भी चले और प्रचंड की पार्टी उनकी लीडरशिप में ही सरकार को समर्थन दे। दूसरी तरफ, प्रचंड आधे-आधे कार्यकाल के लिए सरकार का नेतृत्व चाहते थे। सीधी सी बात यह है कि प्रचंड चाहते हैं कि शुरू में ढाई साल तक वह प्रधानमंत्री रहें और इसके बाद देउबा को मौका मिले। मामला यहीं आकर बिगड़ गया।
प्रचंड ने देउबा का साथ छोड़ने का मन बना लिया और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली (सीपीएन-यूएमएल) के साथ चले गए। प्रचंड पर पूरा भरोसा न तो नेपाली कांग्रेस कर रही थी और न ही सीपीएन-यूएमएल। इसका इशारा तब मिला जब सीपीएन-यूएमएल ने रविवार को कहा कि उसके सामने कई विकल्प हैं और वो नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर भी सरकार बना सकती है।
अब क्या होगाः कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के प्रचंड और ओली छोटे दलों के साथ सरकार बनाने जा रहे हैं। हालांकि, उनके लिए सबको साथ लेकर चलना आसान नहीं होगा। इसकी एक वजह तो यह है कि एक महीने के अंदर उन्हें सदन में बहुमत साबित करना होगा। दूसरी बात यह है कि छोटी पार्टियां मोलभाव कर रही हैं और इसका असर गठबंधन पर पड़ेगा।
प्रचंड पर न तो देउबा को भरोसा है और न ओली को। यही वजह है कि ओली की पार्टी ने गठबंधन के ऐलान के महज आधे घंटे पहले एक बयान दिया। कहा- हम सीपीएन पर ही डिपेंड नहीं हैं, हमारे पास कई और विकल्प भी हैं। छोटी पार्टियों का समर्थन लेकर भी सरकार बनाई जा सकती है। दरअसल, इस बयान के जरिए प्रचंड को संकेत दिए गए कि अगर वो गठबंधन के लिए हुए समझौते से पीछे हटते हैं तो सीपीएन-यूएमएल यानी ओली की पार्टी दूसरे दलों को साथ लेकर भी सरकार बना सकती है।
ओली और प्रचंड के रिश्तेः नेपाल में 2015 में नया संविधान लागू हुआ। चुनाव हुए और केपी ओली प्रधानमंत्री बने, लेकिन, जुलाई 2016 में सहयोगियों के समर्थन वापस लेने से उनकी सरकार गिर गई। सरकार गिरी तो ओली ने इसमें भारत का हाथ बताया, क्योंकि भारत ने नेपाल के नए संविधान में मधेषी और थारू लोगों की मांगों को शामिल नहीं करने पर विरोध दर्ज कराया था।
नेपाल में दोबारा चुनाव हुए तो ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) और पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) ने गठबंधन सरकार बनाई। दोनों को मिलाकर सदन में दो तिहाई बहुमत मिला।
2018 में दोनों पार्टियों का विलय हो गया और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) अस्तित्व में आई। 275 सदस्यों की सदन में एनसीपी के 173 सांसद हैं। 31 महीने बाद एक बार फिर इस पार्टी के दो धड़े हो गए हैं।
आपको बता दें कि प्रचंड सक्रिय राजनीति में आने से पहले 1996 से 2006 तक नेपाल में सशस्त्र माओवादी आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। वहीं, ओली हिंसात्मक आंदोलन के धुर विरोधी नेताओं में से एक रहे हैं।
प्रचंड के साथ सरकार बनाने के बाद भी ओली जब-जब वो संकट में घिरे उन्होंने कोई ना कोई भारत विरोधी मुद्दा उछाला। चाहे नेपाल के नए नक्शे का मुद्दा हो या भारत-नेपाल सीमा विवाद। ओली ने अयोध्या को लेकर भी विवादित बयान दिया था।
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