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Pandit Madan Mohan Malaviya Jayanti Special: लोकतंत्र की आधारशिला सच्ची राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम है - Prakhar Prahari
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Pandit Madan Mohan Malaviya Jayanti Special: लोकतंत्र की आधारशिला सच्ची राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम है

दिल्ली डेस्कः कहते हैं परोपकारी व्यक्तित्व ही व्यक्ति को महान बनाता है। वह अपनी योग्यता, क्षमता, समय, संसाधन आदि सब कुछ समाज के लिए, उसके भविष्य के लिए लगाता है। वह समाज के साथ दया का भाव नहीं रखता, वह सहानुभूति नहीं दिखाता, बल्कि समाज के साथ समानुभूति रखता है। इसी का परिणाम था कि मदन मोहन मालवीयजी ने सुख-सुविधा छोड़ अपना जीवन देश के भविष्य निर्माण में लगा दिया।

पंडित मदन मोहन मालवीय जी की कल्पना करना मुश्किल है क्योंकि वे एक विलक्षण व्यक्तित्व के इंसान थे। उनका जीवन दर्शन सबको जीने की यह परिभाषा दे गया कि… मुझे न तो राज्य की कामना, न ही स्वर्ग की  चाह और न ही पुर्नजन्म से मुक्ति की इच्छा है। दुख से पीड़ित परिवारों के कष्ट दूर करने में सहायक हो सकूं। यही मेरी कामना है। मालवीयजी हमेशा लोगों के लिए भला ही करते थे तो हम भी दूसरों के लिए अच्छा कर सकते है उनके पद्‌चिन्हों पर चलकर। महामना मदन मोहन मालवीयजी ने बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। उन्होंने 4 फरवरी 1916 को बीएचयू की शुरूआत कर एक तरह से भारत की आधुनिक शिक्षा की बुनियाद रखी थी। इसका शिलान्यास वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने किया। मालवीयजी का मकसद महज देश में विश्वविद्यालय की स्थापना करना ही नहीं, बल्कि ऐसे विश्वविद्यालय के माध्यम से समाज, राष्ट्र एवं विश्व को उच्च शिक्षा की सम्यक दृष्टि प्रदान करना रहा था।

मालवीयजी का संबंध राजस्थान से भी रहा है। वे 1914 में जयपुर आए थे। यादगार होटल (वर्तमान में पुलिस कंट्रोल रूम) में ठहरे थे। उन्होंने जयपुर के तत्कालीन शासक महाराजा माधोसिंह द्वितीय से बीएचयू के निर्माण में सहायता मांगी थी, तो महाराजा माधोसिंह ने तुरंत पांच लाख रुपए का सहयोग दिया। बीकानेर के तत्कालीन महाराजा गंगासिंह भी मालवीयजी के भक्त थे और उन्होंने भी काशी विवि के निर्माण में आर्थिक सहायता की। इस दौर में मदन मोहन मालवीय के चिंतन पर गौर करना जरूरी है। उनका मानना था कि लोकतंत्र की आधारशिला सच्ची राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम है। गांवों के विकास के बारे में मालवीयजी का चिंतन था कि विवि के विद्यार्थियों को छुटिट्यों में गांवों में जाकर ग्रामवासियों को अपनी सेवाएं देनी चाहिए। वे चाहते थे कि विद्यार्थीगण गांवों में जाकर ग्रामवासियों को पढ़ाए, लिखाएं तथा गणित की शिक्षा दें। उनका चिंतन था कि जब तक भारत में विज्ञान और तकनीकी ज्ञान को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा, तब तक भारत का औद्योगिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने सन 1919 में बनारस इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की। वे नारी शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि मां ही भावी पीढ़ी का निर्माण करती है क्योंकि नारी ही धर्म को संरिक्षका, संस्कृति की संपोषिका तथा परम्पराओं का संरक्षण-संवर्धन करने वाली है। इसलिए नारी शिक्षा की महत्ती आवश्यकता है। इसके लिए उन्होंने बीएचयू में महिला महाविद्यालय का भी निर्माण कराया। उन्होंने साथ ही प्रथम आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय की भी स्थापना करवाई। पर्यावरण संरक्षण के लिए वे मानते थे कि संपोषित विकास का मूल आधार सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय घटकों के समन्वय में है। मालवीयजी सत्य, त्याग, करुणा, अहिंसा, परोपकार इत्यादि मानवीय सद्‌गुणों की साक्षात प्रतिमूर्ति थे यानी एक तरह से समझे वसुधैव कुटुम्बकम। वे सच्ची धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे।

वे संपूर्ण वसुधा को अपना कुटुम्ब मानते थे। उनका मानना था कि हम सब एक राष्ट्र के अंग हैं। मालवीयजी विश्वबंधुत्व, धार्मिक सहिष्णुता और मानव कल्याण में विश्वास रखते थे। वे चाहते थे किसी भी समुदाय की पहचान हिन्दू, मुस्लिम या अन्य किसी समुदाय के रूप में होकर एक भारतीय के रूप में हो। वे ही मुन्दका उपनिषद से सत्यमेव जयते का मंत्र निकालकर लाए और उसे एक नारे के रूप में आजादी के संघर्ष में प्रचारित किया। प्रसिद्ध कवि मैथलीशरण गुप्त ने मालवीयजी को (भारत को अभिमान तुम्हारा, तुम भारत के अभिमानी, पूज्य पुरोहित थे हम सबके, रहे सदैव समाधानी…) इस कविता के माध्यम से भावभीनी श्रद्धांजलि दी थी।

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