Old compass on vintage map with rope closeup. Retro stale

दिल्लीः आज से 75 साल पहले यानी 22 जुलाई 1947 को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन हॉल में संविधान सभा के सदस्यों की मीटिंग थी। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत के लिए एक झंडे को अपनाने का प्रस्ताव रखा। मीटिंग में इस बारे में गहन चर्चा हुई और फैसला लिया गया कि केसरिया, सफेद और हरे रंग वाले झंडे को ही कुछ बदलावों के साथ आजाद भारत का झंडा बनाया जाए। इस तरह आज ही के दिन 1947 में संविधान सभा ने राष्ट्रध्वज को मंजूरी दी।

भारत के वर्तमान राष्ट्रध्वज को बनाने का श्रेय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पिंगली वेंकैया को जाता है। वेंकैया के बनाए ध्वज में लाल और हरे रंग की पट्टियां थीं, जो भारत के दो प्रमुख धर्मों का प्रतिनिधित्व करतीं थीं। 1921 में पिंगली जब इसे लेकर गांधी जी के पास गए, तो उन्होंने ध्वज में एक सफेद रंग और चरखे को भी लगाने की सलाह दी। सफेद रंग भारत के बाकी धर्मों और चरखा स्वदेशी आंदोलन और आत्मनिर्भर होने का प्रतिनिधित्व करता था।

1923 में नागपुर में एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के दौरान हजारों लोगों ने इस ध्वज को अपने हाथों में थाम रखा था। सुभाष चंद्र बोस ने भी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इस ध्वज का इस्तेमाल किया था। हालांकि ध्वज के रंगों को धर्म से जोड़ने पर विवाद भी हुआ। कई लोग इसमें चरखे की जगह गदा भी जोड़ने की मांग करने लगे तो कई लोग झंडे में एक और गेरुआ रंग जोड़ने की मांग करने लगे। सिखों ने भी मांग की थी कि या तो ध्वज में पीला रंग जोड़ा जाए या सभी तरह के धार्मिक प्रतीकों को हटाया जाए।

1931 में कांग्रेस ने इस ध्वज को अपने आधिकारिक ध्वज के तौर पर मान्यता दे दी। जब देश की आजादी की घोषणा हुई तो भारतीयों के सामने एक सवाल ये भी था कि आजाद भारत का ध्वज कैसा होगा?

इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए आज ही के दिन 1947 में संविधान सभा की एक बैठक हुई। जिसमें फैसला लिया गया कि ध्वज के बीच में जो चरखा है, उसकी जगह अशोक चक्र लगाया जाए।

आजादी के बाद भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना। लिहाजा ध्वज के रंगों की धर्म के आधार पर व्याख्या को भी बदला गया। कहा गया कि इसके रंगों का धर्मों से कोई लेना-देना नहीं है। सबसे ऊपर केसरिया रंग शक्ति और साहस, बीच में सफेद रंग सत्य और शांति और आखिर में हरा रंग मिट्टी और पर्यावरण से हमारे संबंधों का प्रतीक है। ध्वज के बीच में अशोक चक्र धर्म के नियम का पहिया है और साथ ही ये गति का प्रतीक भी है। ये दर्शाता है कि ‘गति ही जीवन है और ठहराव मृत्यु है।’

उसके बाद से अब तक भारत के ध्वज में कोई बदलाव नहीं हुआ। हालांकि भारत के नागरिकों को राष्ट्रीय पर्व के अलावा किसी भी दिन अपने घर और दुकानों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की छूट नहीं थी। 2002 में इंडियन फ्लैग कोड में बदलाव किए गए। आज हर भारतीय नागरिक किसी भी दिन अपने घर, दुकान, फैक्ट्री, ऑफिस में सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहरा सकता है।

अब बात करते हैं मानव इतिहास के सबसे वीभत्स, क्रूर और संगठित नरसंहार की। माना जाता है कि मानव इतिहास के सबसे वीभत्स, क्रूर और संगठित नरसंहार की शुरुआत 1942 में आज ही के दिन से हुई थी। 22 जुलाई 1942 के दिन से ही यहूदियों को नाजी सैनिकों ने वारसा से ट्रेबलिंका के कंसंट्रेशन कैंप लाने का काम शुरू किया था। कहा जाता है कि केवल इसी कैंप में 9 लाख से भी ज्यादा यहूदियों को दर्दनाक मौत दी गई थी।

1933 में हिटलर जर्मनी की सत्‍ता पर काबिज हुआ और इसी के साथ यहूदियों पर अत्याचार बढ़ने लगा। हिटलर मानता था कि जर्मन लोगों की नस्ल बेहतर है और यहूदी यहां एक परजीवी की तरह हैं। अगर जर्मनी को विश्व शक्ति बनना है तो यहूदियों को खत्म करना होगा।

हिटलर ने यहूदियों के लिए अलग इलाके बनवाए, जिन्हें घेट्टो कहा जाता था। इलाके के सारे यहूदियों को इन घेट्टो में कैदी की तरह रखा जाता था। हर यहूदी की पहचान मिटाकर केवल एक नंबर दिया जाता था।

1939 में पोलैंड पर जर्मनी के हमले के साथ ही दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। जहां-जहां जर्मनी युद्ध जीतने के बाद कब्जा करता, वहां हजारों कैंप और डिटेंशन साइट्स तैयार की जातीं। पकड़े गए यहूदियों को इन्‍हीं कैंप्‍स में लाया जाता।

इसी तरह का एक कैंप पोलैंड की राजधानी वारसा से 80 किलोमीटर दूर ट्रेबलिंका में बनाया गया। इस कैंप को जुलाई 1942 में ही बनाया गया था और ये नाजियों के ‘फाइनल सॉल्यूशन’ प्लान का हिस्सा था। आज ही के दिन 1942 में यहां यहूदियों को लाने की शुरुआत हुई।

यहूदियों को वारसा से ट्रेन में जानवरों की तरह ठूंसकर यहां लाया जाता था। कैंप में लाने के बाद सभी के कपड़े उतरवा लिए जाते और सभी को एक बड़े बंद हॉल में बंद कर दिया जाता था। उसके बाद यहूदियों को मारने के लिए छत से कार्बन मोनोऑक्साइड गैस छोड़ी जाती थी। इस जहरीली गैस से लोगों का दम घुटने लगता था और वे तड़प-तड़पकर मर जाते थे। ये होलोकॉस्ट 1945 तक चला। आइए एक नजर डालते हैं देश और दुनिया में 22 जुलाई को घटित हुईं महत्वपूर्ण घटनाओं पर-

1731- स्पेन ने वियना संधि पर हस्ताक्षर किए।
1775: जॉर्ज वॉशिंगटन ने अमेरिकी सेना की कमान संभाली। जार्ज वॉशिंगटन अमेरिका के पहले राष्ट्रपति थे।
1918- भारत के पहले कुशल पायलट इन्द्रलाल राय प्रथम विश्वयुद्ध में लंदन में जर्मनी से हुई लड़ाई में मारे गए।
1923- हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध पार्श्व गायक मुकेश का जन्म।
1933- विली हार्डेमन पोस्ट विमान से अकेले दुनिया का चक्कर लगाने वाले पहले इंसान बने। उन्होंने 7 दिन 19 घंटे में अपना सफर पूरा किया था।
1947- संविधान सभा ने तिरंगे को देश के राष्ट्रीय ध्वज रूप में अंगीकार किया।
1969- सोवियत संघ ने स्पूतनिक 50 और मोलनिया 112 संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण किया।
1970- महाराष्ट्र के 18वें मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस का जन्म।
1981- भारत के पहले भूस्थिर उपग्रह एपल ने कार्य करना शुरू किया।
1988- अमेरिका के 500 वैज्ञानिकों ने पेंटागन में जैविक हथियार बनाने के शोध का बहिष्कार करने की प्रतिज्ञा ली।
1991- अमेरिकी पुलिस ने जेफ्री डेमर को गिरफ्तार किया था। जेफ्री ने 17 लोगों का मर्डर किया था और सभी के शव को अपने घर में रख लिया था। माना जाता कि जेफ्री उन शवों को खाता था।
1999- अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा समान कार्य के लिए समान पारिश्रमिक की कार्य योजना लागू।
2001- शेर बहादुर देउबा नेपाल के नये प्रधानमंत्री बने
2001- समूह-आठ के देशों का जेनेवा में सम्मेलन सम्पन्न।
2003- इराक में हवाई हमले में तानाशाह सद्दाम हुसैन के दो बेटे मारे गए।
2004 – शांति के लिए 1976 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली बैटी बिलियम्स मैक्सिको में गिरफ़्तार।
2005 – आतंकवादी होने के सन्देह में लंदन पुलिस ने निर्दोष ब्राजीली नागरिक जीन चार्ल्स डे-मेंसेज को मार गिराया।
2008 – पाकिस्तान के परमाणु वैज्ञानिक अब्दुल कादिर ख़ान ने एक अदालत में अपने ख़िलाफ़ लगे प्रतिबन्धों हेतु पुनर्विचार याचिका दायर की।
2009 – 29वीं सदी का सबसे लंबा पूर्ण सूर्यग्रहण लगा था।
2012- प्रणव मुखर्जी भारत के 13वें राष्ट्रपति निर्वाचित।
2019- चंद्रयान-2 ने श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से उड़ान भरी।

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