दिल्ली : इस समय दुनिया तृतीय विश्व युद्ध की कगार पर खड़ी है और विश्व में शांति स्थापित करने के लिए गठिन संयुक्त राष्ट्र बेबस है। संयुक्त राष्ट्र की बेबसी का आलाम देखिए कि जिस समय संयुक्त राष्ट्र सुरुक्षा परिषद की रूस और यूक्रेन के बीच तनाव को लेकर बैठक हो रही थी, उसी समय रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूद्ध का ऐलान कर दिया और रूसी सैनिक यूक्रेन पर हमला करने लगे।
इसके पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आवाज सुनाई देने लगी, पुतिन को फोन करो, लावरोव को फोन करो। इस हमले को बंद कराओ। आपने मेरे लोगों के ऊपर जो हमला किया है. उसका नतीजा भुगतना पड़ेगा। मिस्टर एम्बेसेडेर, वार क्राइम के गुनहगारों की जगह नरक में है। ये अल्फाज है यूक्रेन के राजदूत सर्गेई किसलित्स्या के। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद (UN Security Council) में ये भावुक अपील उस वक्त की, जब चेयर पर रूसी राजदूत वैसिली नेबेंनजिया विराजमान थे । जंग (Russia Ukriane War)से हो रही मौतों और आने वाली तबाही का मंजर आंखों में समाए यूक्रेनी राजदूत को दुनिया के सारे पंच सन्न होकर सुन रहे थे।
उन्होंने रूसी राजदूत से कहा, “छोड़ दो यो कुर्सी, किसी और सदस्य देश को दे दो।“ इस पर रूसी राजदूत ने कहा, “मैं ये बताना चाहता हूं कि रूस यूक्रेन के लोगों के प्रति आक्रामक नहीं है। रूस कीव में बैठे जुंटा के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है।“
जिस समय संयुक्त राष्ट्र की पंचायत लगी थी, उस समय वहां से जब हजारों किलोमीटर दूर डोनबास (Donbas Region) और कीव (Kyiv) पर रूसी मिसाइलें कहर बरपा रही थीं। यूक्रेन के रूस पर हमले (Russia Attacks Ukraine) में अब तक 150 से ज्यादा लोगों के मारे जाने की खबर है। यूक्रेन के विदेश मंत्री दिमित्री कुलेबा (Dymitro Kuleba) ने दावा किया है कि कोरोनावायरस से जूझ रहे उनके देश के अस्पतालों पर भी रूस ने हमले किए हैं।
आपको बता दें कि यह पहला मौका नहीं है, जब संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बेबसी दिखी है। यह उन चंद ताकतवर देशों की कठपुतलियां हैं जो अपने हिसाब से दुनिया के सामरिक समीकरण तय करना चाहते हैं। कब किस देश को नरसंहार के हथियार बनाने का दोषी बताना है या किस पर अल कायदा का पनाहगार बताकर हमला करना है। अमेरिका इसी सुरक्षा परिषद से मनचाही मंजूरी पा चुका है। रूस के पास भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो पॉवर है। ऐसे में यूक्रेन संकट पर आलोचना के अलावा क्या बचता है। प्रतिबंधों की एक लिस्ट तो हमले से पहले ही तैयार कर ली गई थी। क्या ये व्लादिमीर पुतिन को रोक पाया? संयुक्त राष्ट्र विस्तार और सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की संख्या जब तक नहीं बदली जाती है, तब तक इसी तरह की बेबसी दिखाई देती रहेगी। न सिर्फ यूएन बल्कि दुनिया के तमाम बहुपक्षीय मंचों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस रिफॉर्म की जरूरत जता चुके हैं।
दुनिया का चौधरी बनने की कोशिश करने वाला अमेरिका भी बेबस है। राष्ट्रपति जो बाइडन और नाटो यानी उत्तर अटलांटिक संधि संगठन के उनके साथी किस बिना पर यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को उकसा रहे थे, ये समझ से परे है। अफगानिस्तान से लौटी आखिरी कमांडर को बाइडन ने पोलैंड में तैनात किया। जर्मन बेस पर सैन्य टुकड़ी बढ़ा दी और साथ-साथ जेलेंस्की को दिलासा देते रहे कि घबराना मत। अगर रूस ने हमला किया तो हम साथ हैं लेकिन रूसी राष्ट्रपति पुतिन को सीधे चेतावनी देते रहे। फिर आर्थिक प्रतिबंधों की दूसरी लिस्ट से क्या जेलेंस्की की समस्या खत्म हो जाएगी? जब जो बाइडन से पूछा गया तो उन्होंने माना कि इसका असर होने में टाइम लगेगा। अरे भाई तब तक यूक्रेन की राजधानी कीव का अस्तित्व कैसा रहेगा? तो अब रूस को मनाने के लिए भारत की तरफ क्यों देख रहे सब के सब?
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े यूरोपीय संकट को टालने के लिए नरेंद्र मोदी की तरफ टकटकी लगाए देशों को भूतकाल की नाकामियों पर भी गौर करना चाहिए। नाटो का विस्तार और रूस को घेरने की कोशिशों में पूरे इलाके को मिलिट्री जोन जैसे बनाने की कवायद का विरोध तो होगा ही। भारत ने हमेशा अपनी विदेश नीति में सैनिक आक्रामकता का विरोध किया है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बदलाव भी आया है। अगर राष्ट्रीय सुरक्षा पर आंच आई तो घुस के मारेंगे। चाहे पाकिस्तान हो या चीन। अब इस नजरिए से भी व्लादिमीर पुतिन के फैसले को देखिए। हो सकता है पुतिन और मोदी में समानता दिखाई दे। हो सकता है इसी से संदेश गया हो कि पुतिन को मोदी मना लेंगे। और शायद नरेंद्र मोदी पहले बड़े नेता हैं जिन्होंने यूक्रेन पर हमले के बाद रूसी राष्ट्रपति से बात भी की है।
पीएम मोदी से हस्तक्षेप की पहली अपील तो खुद यूक्रेन के विदेश मंत्री कुलेबा ने की। उन्होंने रूस-भारत मित्रता का हवाला देते हुए अपील की। फिर फ्रांस की तरफ से कहा गया है कि भारत इस संकट में अहम भूमिका निभा सकता है। जबकि फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों यूक्रेन के डोन्टेस्क और लुहांस्क को रूस का हिस्सा घोषित करने से पहले मॉस्को जाकर पुतिन से मिल चुके हैं। भारत फिलहाल तटस्थ है। ये तो जो बाइडन के प्रेस कॉन्फ्रेंस से भी पता चल गया। उनसे पूछा गया कि भारत खुलकर रूस का विरोध नहीं कर रहा है, तो उन्होंने कहा.. हम बात कर रहे हैं, आज भी बात हुई है लेकिन unsettled यानी अनसुलझा है। साथ ही जॉर्ज बुश की तरह उन्होंने ये भी जोड़ दिया कि जो भी रूस के साथ है उस पर दाग लगेगा। ये अनर्गल है। हर देश अपनी चिंताओं के साथ विदेश नीति अपनाता है।इस बीच राजनाथ सिंह ने जरूर कहा है कि भारत युद्ध नहीं चाहता है। हालांकि ये अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का मानक वाक्य है। बीती रात पीएम मोदी ने फोन पर पुतिन से अपील की है कि मामले को बातचीत से हल कर लिया जाए। अब इसके आगे भारत क्या कर सकता है, इस पर मंथन जारी है।
भारत कई पहलुओं से इस घटना को देख रहा है। रूस पर प्रतिबंधों का असर भारत पर भी पड़ेगा। अब तक रूस के साथ मिसाइल डिफेंस सिस्टम एस-400 और अकुला क्लास परमाणु पनडुब्बियों के सौदे के बावजूद इससे बचता रहा है। चीन से निपटने और डीफेंस डील में अपने सौदे का खयाल रखते हुए अमेरिका ने काटसा कानून से (Countering American Adversaries Through Sancitons Act) भारत को अलग रखा है। अब दबाव है कि भारत खुलकर रूस का विरोध करे, लेकिन हमारी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति है।
एक पहलू ये भी है कि हमारी सेना खुद चीन के नापाक इरादों से निपट रही है। अमेरिका से घनिष्ठ होते संबंधों के बीच रूस-चीन संबंध भी मजबूत हुए हैं और दोनों अमेरिका के खिलाफ एकसुर से बोल रहे हैं। पुतिन ने तो वन चाइना पॉलिसी का खुलकर समर्थन किया है। मतलब ताईवान को चीन का हिस्सा मान लेना। यूक्रेन पर हमला रोकने की यूएन की विफलता का असर चीन के रवैये पर भी पड़ेगा। इसलिए रूस से परंपरागत रिश्ता चीन को बैलेंस करने में काम आ सकता है। उधर इमरान खान भले ही रूस को साधने में लगे हों लेकिन यूक्रेन लगातार पाकिस्तान को टी-80 टैंक सप्लाइ कर रहा है। हाल ही में यूक्रेन ने पाकिस्तानी एयरफोर्स के रिफ्यूल सिस्टम को ठीक करने का कॉन्ट्रैक्ट लिया है। इन सबके मद्देनज़र भारत किसी दबाव में नहीं आना चाहेगा।
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