नरेन्द्र कुमार वर्मा
देश में वामपंथी इतिहासकारों की एक खास प्रवृत्ति रही है कि उन्होंने झूठ को इस तरह से परोसा कि देश ने उसे सच मान लिया। दशकों तक इसी मानसिकता का लाभ मोपला कांड से जुड़े लोगों के परिवार वाले उठाते रहे। भारत के इतिहास में 20 अगस्त 1921 के दिन को हिंदूओं के लिए एक अभिशाप के तौर पर याद रखा जाता है। 1921 में ही देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था और सारे देश की जनता अपने-अपने तरीके से ब्रिटिश सरकार का विरोध कर रही थी, मगर केरल के मालाबार इलाके में वरियम कुन्नथु कुंजा अहमद हाजी नामक एक कट्टरपथी मुसलमान ने हिंदूओं की हत्या करने उनकी संपत्तियों पर कब्जा करने, हिंदू आस्था स्थलों को ध्वस्त करने और हिंदूओं के जबरिया धर्म परिवर्तन का तांडव मचा रखा था।
कुंजा अहमद खुद को ‘अरनद का सुल्तान’ भी कहता था,जिसके इशारे पर उसके सैकड़ों साथियों ने बड़ी बर्बरता के साथ समस्त मालाबार इलाके को रक्तरंजित कर रखा था। कुंजा अहमद का एक अन्य साथी अली मुसलीयर बर्बरता का नेतृत्व कर रहा था। उसके आतंक से 1 लाख से ज्यादा हिंदू रातो-रात मालाबार के इलाके से पलायन करने को मजबूर हुए थे। संविधान निर्माता और महानराष्ट्रवादी जननायक बाबा साहब अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में लिखा हैं कि मोपलाओं द्वारा हिंदूओं के खून खराबे और अत्याचार को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह अवर्णनीय था। एनी बेसेंट ने भी अपनी किताब में मोपला कांड का जिक्र करते हुए लिखा हैं कि जो हिंदू धर्म छोड़ने को तैयार नहीं हुए उनके साथ होने वाले अत्याचारों पर एक लंबी दास्तान लिखी जा सकती हैं।
इस कांड को मोपला कांड इसलिए कहा जाता हैं कि केरल के मालाबार इलाके में मलयाली भाषा में मुसलमानों को मोप्पिला कहा जाता है जो बाद में मोपला कहा जाने लगा। उत्तरी केरल के इस इलाके में हिंदू जमींदारों का राज था और संपन्न हिंदूओं के हाथों में कारोबार और खेती का कार्य था। इस क्षेत्र में रहने वाले मुस्लिम खेतीहर श्रमिक थे या स्थानीय बाजारों में छोटा मोटा काम धंधा करते थे। हिंदू जमींदारों के यहां मुस्लिम श्रमिक काम करते थे जिन्हें मुसलमान ‘जेनमी’ कहते थे। हिंदूओं की संपन्नता देखकर मुसलमानों के बीच असंतोष फैल रहा था, जबकि उस क्षेत्र में काम करने वाले पुर्तगाली और अंग्रेज भी हिंदूओं के बीच ही रहना पसंद करते थे। इसी बीच योजनाबध्द तरीके से अली मुसलीयर और कुंजा अहमद ने मुसलमानों को संगठित किया और हिंदू मंदिरों और जमींदारों के घरों को आग लगाना शुरू कर दिया। जिसके बाद देखते ही देखते समूचा मालाबार हिंदूओं के रक्त से लाल हो उठा।
वामपंथी इतिहासकारों ने इसे वर्ग संघर्ष का रंग देने का काम किया, मगर तत्कालिन ब्रिटिश सरकार ने इस हिंदूओं के खिलाफ मुसलमानों का एक तरफा नरसंहार माना था। चार महीनों तक जब मोपला हिंसा में हिंदू शिकार होते रहे तो ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कुचलने के लिए विशेष दल को मालाबार इलाके में भेजा, जिसने बेहद सख्ती के साथ इस संगठऩ को कुचलने का काम किया। हजारों हिंदूओं की हत्या के आरोपी हाजी को ब्रिटिश सरकार ने 20 जनवरी 1922 को गोली मार कर मौत की नींद सुला दिया और उसके बहुत से साथियों को फांसी के फंदे पर टांग दिया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। करीब 20 हजार से ज्यादा हिंदूओं को काट कर मालाबार के कुओं को पाट दिया गया था। भयावह मारकाट और मौत का तांडव देखकर जिन हिंदूओं ने धर्म परिवर्तन किया था उन्होंने हाजी की मौत के बाद घर वापसी शुरू की थी। आर्य समाज ने बड़े पैमाने पर तब शुध्दिकरण आंदोलन चलाया था और मुस्लिम बने लोगों को पुनः हिंदू बनाने का काम किया गया।
इस शुध्दिकरण आंदोलन से मुसलमान घबरा उठे थे और उन्होंने एक षड़यंत्र रच कर आर्य समाज के महान नेता स्वामी श्रध्दानंद की 23 दिसंबर 1926 के दिन गोली मार कर हत्या करा डाली, मगर दुर्भाग्य देखिए वामपंथी इतिहाकारों ने बड़ी चालाकी से मोपला हिंसा को असहयोग आंदोलन से जोड़ दिया। इसके बाद केरल सरकार ने 1971 में मोपला हिंसा के जिम्मेदार लोगों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को दर्जा देकर उनके परिवार वालों को सरकारी सुविधाएं प्रदान करना आरंभ कर दिया। यह सब काम करते वक्त यह लोग यह भूल गए कि वरिष्ठ वामपंथी नेता और केरल में ब्राह्मण समुदाय के पहले मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद के पूर्वजों को भी मोपला हिंसा में प्राणों की आहूति देनी पड़ी थी। मगर तुष्टिकरण तो तुष्टिकरण है केरल के मुसलमानों को खुश करने के लिए नंबूदरीपाद ने भी अपना मुंह बंद करना ही उचित समझा, जबकि मालाबार इलाके में अधिकांश नंबूदरी ब्राह्मण ही मोपला हिंसा का शिकार हुए थे।
मालाबार के इतिहास में सैकड़ों ऐसे साक्ष्य है जिनसे स्पष्ट होता हैं कि कुंजा अहमद ने बड़े पैमाने पर हिंदूओं की हत्या की थी और उनका धर्म परिवर्तन कराया था। जिसने धर्म परिवर्तन करना स्वीकार नहीं किया उस पर ‘जजिया’ भी लगाया गया। इसी की आड़ में लंबे वक्त तक केरल सरकार से मोपला से जुड़े परिवार लाभ प्राप्त करते रहे, मगर भला हो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) का जिसके सदस्य सचिव प्रोफेसर कुमार रतनम् की अगुवाई में बनी एक तीन सदस्यी समिति ने व्यापक अनुसंधान के बाद यह पाया कि मोपला कांड में शामिल कोई भी व्यक्ति असहयोग आंदोलन से नहीं जुड़ा था और स्वाधीनता संग्राम से उन कट्टरपंथियों का कोई लेना देना नहीं था।
आईसीएचआर की रिपोर्ट के बाद भी भारत सरकार ने उन सभी 387 लोगों से स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों का दर्जा छिन लिया और उनकी पेंशन बंद कर दी, जिन्हें केरल सरकार मुफ्त में लाभ दे रही थी। अली मुसलीयर और कुंजा अहमद जैसे लोगों के नाम शहीदों की सूची से हटा दिए गए। आईसीएचआर ने बेहद शोध परक तरीके एवं साक्ष्यों के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार की है जिसके अनुसंधान में प्रोफेसर कुमार रतनम् का अहम योगदान रहा।
मगर शर्मनाक बात यह हैं कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह हिंसा के इस नंगे नाच को स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ा। इस अनैतिक काम की कोई दूसरी मिसाल मिलना कठिन है। वामपंथी आज भी इस हिंसा का समर्थन कर रहे है। इतना ही नहीं मोपला कांड पर फिल्म निर्माण की घोषणा भी कर रहे हैं। मगर आईसीएचआर ने सारी दुनिया के सामने मोपला कांड की सच्चाई को उजागर करने का काम किया। इस सच्चाई को हिंदू नेता एक लंबे वक्त से बयान कर रहे थे, मगर कोई उनकी बातों को सुना ही नहीं जा रहा था। अब यह प्रमाणिक हो चुका है कि मोपला कांड मालाबार इलाके में हिंदूओं के खिलाफ एक सोची समझी साजिश थी जिसके पीछे कट्टरपंथी इस्लामिक सोच काम कर रही थी।
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