नई दिल्ली.
आज जब दुनिया कोविड-19 की महामारी से जूझ रही है, तो जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से निपटने के लिए की जाने वाली प्रतिबद्धताएं नीति नियंताओं की प्राथमिकता सूची से खिसकती जा रही हैं। मगर यह बरकरार है। इसे नजरअंदाज करना जायज नहीं। खुद भारत, दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 7.1 प्रतिशत है। ऐसे में भारत के सामने अपनी अलग तरह की चुनौतियां हैं।
ग़रीबी उन्मूलन और आमदनी में टिकाऊ वृद्धि के लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है। लेकिन, इससे पर्यावरण को काफ़ी नुक़सान भी हो रहा है–आज दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं– और जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव लोगों की सेहत और दूरगामी आर्थिक प्रगति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं। हालांकि भारत ने इस मामले में अपनी संभावनाओं से कहीं कम उपलब्धियां हासिल की हैं। हालांकि क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (CAT) के विश्लेषणों में ये कहा जा रहा है कि भारत 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त करने की सही राह पर है। लेकिन, अभी भी देश की नीतियां ऐसी नहीं हैं कि भारत 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त कर सके। इससे भी ख़राब बात ये है कि अभी तक भारत अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को भी संशोधित नहीं कर सका है।
नवीनीकरण योग्य ऊर्जा और बिजली से चलने वाले वाहनों (EV) को लेकर भारत की जो नीतियां हैं, वो इसी की ओर इशारा करती हैं। फिर भी, भारत के लिए उचित यही होगा कि वो कार्बन न्यूट्रल होने का लक्ष्य पाने के लिए व्यापक और एक दूसरे से जुड़ी हुई नीतियां बनाए और लक्ष्य निर्धारित करे। निश्चित रूप से भारत का ध्यान प्रमुख रूप से ऊर्जा के क्षेत्र पर होना चाहिए। वर्ष 2030 तक भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने वाले 60 प्रतिशत संसाधनों के नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोत से आने का लक्ष्य अच्छा है। लेकिन, इस मक़सद को हासिल करने के लिए आवश्यक नीतियों को लागू करने की गति तेज़ की जा सकती है।
एक दशक पहले की तुलना में आज इससे जुड़े बाज़ार की स्थिति भी बेहतर हुई है। नवीनीकरण योग्य ऊर्जा संसाधनों में भी अधिक ज़ोर, सौर और पवन ऊर्जा पर होना चाहिए। चूंकि, जल विद्युत परियोजनाओं से पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसलिए, इसे केवल आख़िरी विकल्प के तौर पर आज़माया जाना चाहिए। सबसे बड़ी चुनौती कोयले के इस्तेमाल की है। भारत की ऊर्जा संबंधी फ़ौरी ज़रूरतें पूरी करने में कोयले की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेकिन, कोयले से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। ऐसे में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ाने से हम कोयले के इस्तेमाल की मजबूरी से मुक्ति पा सकेंगे और इससे बिजली की अबाध आपूर्ति की राह में बाधा भी नहीं पड़ेगी।
दूसरा क़दम जो भारत उठा सकता है, वो परिवहन की हरित व्यवस्था की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाने का है। इलेक्ट्रिक गाड़ियों के महत्वाकांक्षी लक्ष्य एक अच्छी शुरुआत कहे जा सकते हैं। लेकिन, ऐसे परिवहन के लिए कार और बैटरी निर्माताओं के साथ–साथ बैटरी चार्ज करने के मज़बूत इको–सिस्टम का विकास भी महत्वपूर्ण है। ऐसा करने के लिए, निजी और सरकारी क्षेत्र से वर्ष 2030 तक लगभग 180 अरब डॉलर के निवेश की ज़रूरत होगी। ये अनुमान सेंटर फ़ॉर एनर्जी फाइनेंस द्वारा किए गए अध्ययन पर आधारित है। भारतीय रेल द्वारा वर्ष 2030 शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पाने के लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच साझेदारी को भी बढ़ाने की ज़रूरत होगी।
तीसरी बात ये है कि भारत को शहरी आवास की नए सिरे से परिकल्पना करने की ज़रूरत है। भारत में शहरों के विकास की संभावनाओं को देखते हुए, शहर के भीतर परिवहन की मांग में वृद्धि होगी। इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए शहरों को बिजली से चलने वाली गाड़ियों के साथ साथ ऐसी परिवहन व्यवस्था की भी ज़रूरत होगी, जो कार्बन न्यूट्रल हो। नए रिहाइशी प्रोजेक्ट और कारोबारी संपत्तियों के लिए हरित नियम बनाने होंगे। इसके अलावा पुरानी इमारतों को कार्बन न्यूट्रल बनाने के लिए उनमें भी बदलाव करना होगा। इसे शहरों में पर्यावरण के अनुकूल रिहाइशी व्यवस्था का विकास हो सकेगा। इन सबके साथ–साथ शहरों में पेड़ों की संख्या बढ़ाने की भी ज़रूरत होगी।