Deprecated: The PSR-0 `Requests_...` class names in the Requests library are deprecated. Switch to the PSR-4 `WpOrg\Requests\...` class names at your earliest convenience. in /home1/prakhndx/public_html/wp-includes/class-requests.php on line 24
इज़रायल और ईरान की बदलेगी तासीर, बदल चुके हैं चेहरे - Prakhar Prahari
Subscribe for notification

इज़रायल और ईरान की बदलेगी तासीर, बदल चुके हैं चेहरे

नई दिल्ली.
इजरायल और ईरान में इधर राजनीतिक बदलाव हुए हैं। दोनों ही देशों में लंबे समय से जो राष्ट्राध्यक्ष थे, वे हटे हैं और उनकी जगह नए चेहरों ने ली है। इससे वहां नई राजनीति और नई शख्स़ियतें केंद्र में आईं हैं।

इज़रायल में बेंजमिन नेतन्याहू लगातार 12 साल और कुल मिलाकर 14 साल प्रधानमंत्री रहे। उनकी जगह नफ्ताली बेनेट ने ली है। दूसरी तरफ, ईरान में भी हसन रूहानी की लंबे वक्त के बाद विदाई हुई है। रूहानी जब सत्ता में आए थे तो ईरान के लोगों को उनमें एक उम्मीद दिखी थी। हालांकि, चार–चार साल के उनके दो कार्यकाल खत्म होने के बाद भी लोगों ने उनसे जिन सुधारों की उम्मीद की थी, वह पूरी नहीं हुई। ख़ासतौर पर भ्रष्टाचार से निपटने में उनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा, पर रूहानी की खूबी यह थी कि उन्होंने इस मुद्दे पर अयातुल्ला से अलग राह चुनते हुए अमेरिका के साथ समझौते की ख़ातिर ईरान में समर्थन जुटाया था। यह दीगर बात है कि 2021 में ईरान चुनाव में 48.8 फीसदी लोगों ने ही मतदान किया। खबरों के मुताबिक देश के इतिहास में इससे कम मतदान पहले कभी नहीं हुआ था। यह बड़ा नुकसान है क्योंकि देश की आधी आबादी 30 साल से कम की है।

ईरान और इज़रायल के बीच वर्षों से एक अनौपचारिक युद्ध चल रहा है। नेतन्याहू के कार्यकाल में ईरान के साथ किसी भी तरह के परमाणु समझौते का इज़रायल ने भारी विरोध किया। असल में, इस तरह की किसी डील से ईरान में पश्चिमी देशों के निवेश का रास्ता भी खुल जाएगा। इज़रायल ने अंदरखाने बराक़ ओबामा सरकार को भी ईरान से परमाणु समझौता न करने के लिए मनाने की कोशिश की थी। उसका मानना था कि इससे ईरान वैश्विक समुदाय की मुख्यधारा में आ जाएगा।

ईरान खुद भी पश्चिमी देशों के साथ सामान्य रिश्ते बहाल करने को लेकर संघर्ष करता दिखा। दूसरी ओर सीधे अयातुल्ला और उनके जनरलों के अंदर काम करने वाले इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) ने मिलिशिया के ज़रिये अपनी पहुंच सीरिया और इराक़ तक कर ली। उसने इसके लिए विद्रोहियों को पैसा दिया और ये लोग आतंकवादी संगठन ISIS के साथ मिलकर कथित इस्लाम विरोधियों से लड़ते रहे। इस्लामिक गार्ड्स की इस कारस्तानी पर अगर किसी को ज़रा भी शक रहा होगा तो वह ईरान के विदेश मंत्री जव्वाद ज़रीफ के एक लीक हुए इंटरव्यू से दूर हो गया। इसमें उन्होंने कूटनीति में दख़ल देने को लेकर इस्लामिक गार्ड्स की आलोचना की थी। उन्होंने यह आरोप भी लगाया था कि IRGC रूस के साथ मिलकर परमाणु समझौते को तोड़ने की ज़मीन तैयार कर रहा है। रूहानी के लिए इन लोगों को नियंत्रित करना मुश्किल था। वह पश्चिमी देशों के साथ मिलकर जो हासिल करने की कोशिश कर रहे थे, अक्सर उसमें ऐसी ताकतें अड़ंगा बनती रहीं।

इज़रायल को गैर–आधिकारिक परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली है। ऐसे में अगर ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाता है तो येरूशलम के लिए उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा। इसी वजह से जब पश्चिमी देशों के साथ ईरान परमाणु समझौते को लेकर बातचीत कर रहा था, तब इज़रायल उसके खिलाफ़ गुपचुप रूप से युद्ध छेड़े हुए था। करीब एक दशक से इज़रायल की गुप्तचर एजेंसियां ईरान में घुसकर उसके साइंटिस्टों को निशाना बनाती आई हैं। पिछले साल जाने–माने ईरानी परमाणु वैज्ञानिक मोहसेन फखरीजादे की तेहरान में हत्या के लिए भी इज़रायल की खुफ़िया एजेंसी को ही ज़िम्मेदार माना गया।

ईरान और इज़रायल में नेतृत्व परिवर्तन का असर पश्चिम एशिया से बाहर के इलाकों पर भी होगा। ख़ासतौर पर भारत जैसे देशों पर, जो इस क्षेत्र की तीन ताकतों सऊदी अरब, ईरान और इज़रायल के बीच महीन संतुलन बनाकर चलते आए हैं। इन देशों की नज़र भी नए नेतृत्व और उनकी आगामी नीतियों पर रहेगी। भारत ने इस क्षेत्र की सारी बड़ी ताकतों के साथ अच्छे ताल्लुक़ात बनाए हुए हैं। इसलिए अगर उसके नज़रिये से देखें तो मामूली संयोजन करना होगा और कूटनीति पर इसका बहुत असर नहीं होगा।

इज़रायल के साथ पिछले कुछ साल में भारतीय संबंधों पर नेतन्याहू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पर्सनैलिटी पॉलिटिक्स का असर रहा है। ये दोनों ही इस बात के प्रतीक थे कि वैश्विक स्तर पर राजनीतिक का झुकाव दक्षिणपंथ की ओर हुआ है। इज़रायल में आज गठबंधन की जो नाज़ुक और ‘सतरंगी’ सरकार है, भारत ऐसी सरकारों की मजबूरियों से भी अनजान नहीं है। वह अपने यहां ऐसी कई सरकारों का गवाह रहा है। यह बात और है कि इज़रायल के साथ रिश्ते में मोदी–नेतन्याहू की दोस्ती वाली बात नहीं रह जाएगी। शायद भारत को एक कदम पीछे खींचना पड़े।

उधर, ईरान में रईसी के सत्ता में आने से भारत के साथ रिश्तों पर कोई बड़ा असर नहीं होगा। इसमें अवसर हैं तो चुनौतियां भी। आर्थिक और निवेश संबंधी ज्य़ादातर प्रस्ताव अभी रुके हुए हैं। दूसरी ओर, कागज़ पर आपसी रिश्ते मज़बूत हो रहे हैं। हालांकि, रणनीतिक तौर पर ईरान का सवाल भारत के लिए आने वाले महीनों में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा, जब अमेरिका अफ़गानिस्तान से सैनिकों को पूरी तरह से वापस बुलाने का वादा पूरा कर चुका होगा। दूसरी ओर, ईरान के साथ चीन 25 साल लंबी रणनीतिक साझेदारी पर अमल शुरू करेगा। यह करीब 400 अरब डॉलर का समझौता है।

Delhi Desk

Recent Posts

गाजा पहुंचे नेतन्याहू, इजरायल-हमास जंग के बीच सैन्य ठिकानों का दौरा किया

दिल्लीः इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इजरायल और हमास के बीच जारी जंग के दौरान पहली बार गाजा का…

3 days ago

इमोशनल टेंशन से टूटा रहमान का रिश्ता, 29 साल बाद पत्नी सायरा से अलग हुए, लिखा- उम्मीद थी 30 साल पूरे कर लेंगे

मुंबईः बॉलीवुड के महान संगीतकार एवं ऑस्कर पुरस्कार विजेता एआर रहमान (57) करीब तीन दशक बाद अपनी पत्नी सायरा बानू…

3 days ago

भारत-चीन के बीस सीधी उड़ान शुरू करने पर चर्चा, मानसरोवर यात्रा फिर शुरू करने पर भी G20 में बातचीत

दिल्लीः पांच साल बाद भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के मुद्दे पर विशेष प्रतिनिधियों की बैठक बुलाने पर…

3 days ago

21 से 24 नवंबर तक भाग्यनगर में लोकमंथन का आयोजन, राष्ट्रपति मुर्मू 22 को करेंगी उद्घाटन

संवाददाताः संतोष कुमार दुबे दिल्लीः भाग्यनगर के नाम से प्रसिद्ध तेलंगाना के हैदराबाद में 21 नवंबर से वैश्विक सांस्कृतिक महोत्सव…

4 days ago