किन्नरों को समझना नहीं आसान, ‘जिंदगी की दास्तान’ में पूरी पहचान

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रायपुर. किन्नरों की जिंदगी वास्तव में किसी जंग से कम नहीं। वैसे तो हमारे समाज का ताना-बाना मर्द और औरत से मिलकर बना है, लेकिन एक तीसरा जेंडर भी हमारे समाज का हिस्सा है। इसकी पहचान कुछ ऐसी है जिसे सभ्य समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। लोगों के लिए ये सिर्फ़ हंसी के पात्र हैं।

इनकी जिंदगी के पन्नों को पलटना आसान नहीं, लेकिन रायपुर के डाक्टर फिरोज अहमद ने किन्नरों के भाव को शब्दों में पिरोया है। दावा किया जा रहा है कि ‘जिंदगी की दास्तान’ थर्ड जेंडर समुदाय सदस्यों की गद्य और पद्य रचनाओं का यह पहला संकलन है। इसकी रचना छत्तीसगढ़ सहित भारत के तृतीय लिंग समुदाय के द्वारा की गई है। आत्म-अभिव्यक्ति, संवेदनाएं, पीड़ा, आशाएं, आकांक्षाएं, अनगिनत संभावनाएं और न जाने कितने ही ऐसे सहज और जटिल भावों से पाठक रूबरू होंगे।

ज़्यादातर किन्नर जन्म से मर्द होते हैं, लेकिन उनके हाव-भाव ज़नाने होते हैं। इनका शुमार न मर्दों में होता है और न औरतों में। लेकिन ये ख़ुद को दिल से औरत ही समझते हैं। इन्हें कोई ट्रांसजेंडर के नाम से जानता है तो कोई ट्रांससेक्सुअल। तीसरे जेंडर का होने पर जिन्हें उनके अपने ख़ुद से दूर कर देते हैं, उन्हें किन्नर समाज पनाह देता है।

इनके समाज के कुछ क़ायदे क़ानून होते हैं जिन पर अमल करना लाज़मी है। ये सभी परिवार की तरह एक गुरु की पनाह में रहते हैं। ये गुरु अपने साथ रहने वाले सभी किन्नरों को पनाह, सुरक्षा और उनकी हर ज़रूरत को पूरा करते हैं। सभी किन्नर जो भी कमा कर लाते हैं अपने गुरु को देते हैं। फिर गुरु हरेक को उसकी कमाई और ज़रूरत के मुताबिक़ पैसा देते हैं। बाक़ी बचे पैसे को सभी के मुस्तक़बिल के लिए रख लिया जाता है। गुरु ही इन किन्नरों का मां-बाप और सरपरस्त होता है।

हरेक किन्नर को अपने गुरु की उम्मीदों पर खरा उतरना पड़ता है। जो ऐसा नहीं कर पाते उन्हें ग्रुप से बाहर कर दिया जाता है। हर गुरु के अपने अलग क़ायदे-क़ानून होते हैं। इन्हें तोड़ने वालों को बख़्शा नहीं जाता। हरेक किन्नर को एक तय रक़म कमाना ज़रूरी होता है। जो ऐसा नहीं कर पाते, उनसे ख़िदमत के दूसरे काम लिए जाते हैं। जो लोग अपना लिंग बदलवाकर अपनी इच्छा से इनके ग्रुप में शामिल होना चाहते हैं, ये उनकी भी मदद करते हैं।

हालांकि अब इनके कमाने का तरीक़ा भी बदल गया है। अपने ग्रुप से निकाल दिए जाने के बाद ये सड़कों पर, पार्कों, बसों, ट्रेनों, चौराहों, कहीं भी मांगते हुए नज़र आ जाते हैं। लोगों की नज़र में अब इनकी पहचान भिखारी की हो गई है। भारत में साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें सरकारी दस्तावेज़ों में बाक़ायदा थर्ड जेंडर के तौर पर एक पहचान दी है। वो सरकारी नौकरियों में जगह पा सकते हैं। स्कूल कॉलेज में जाकर पढ़ाई कर सकते हैं। उन्हें वही अधिकार दिए हैं जो किसी भी भारतीय नागरिक के हैं।

साफ है कि थर्ड भाव शून्य नहीं है। विचार शून्य नहीं। नकारा नहीं। उनमें अदम्य साहस है। बचपन से लेकर आज तक कटीले रास्तों पर चलते हैं। उफ भी नहीं करते। हम बहुत कुछ कहना और करना भी चाहते हैं, किंतु जब देखते हैं कि वैचारिक यात्रा के लिए गली से लेकर सड़क तक सब बंद है तो मन मसोस कर रह जाते हैं। दावा किया जा रहा है कि यह किताब भारत में किन्नरों द्वारा पहली बार लिखी गई है।

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