देश के 9 राज्यों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा कदम उठाया है. आबादी के हिसाब से राज्यवार अल्पसंख्यकों की पहचान की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की. मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना और वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने सुनवाई करते हुए गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को नोटिस भेजा है. अदालत की ओर से कहा गया है कि मंत्रालय इन पर चार हफ्ते के अंदर जवाब दें. यह याचिका बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दाखिल की है. याचिका में कहा गया है कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक खत्म किया जाए या फिर देश के 9 राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए.
बीजेपी के कद्दावर नेता अश्विनी उपाध्याय ने नेशनल कमिशन फॉर माइनॉरिटी एक्ट 1992 के उस प्रावधान को खत्म करने की मांग की है, जिसके तहत देश में अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है. साथ ही गुहार लगाई गई है कि अगर कानून कायम रखा जाता है तो जिन 9 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, उन्हें राज्यवार स्तर पर अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए ताकि उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल सके. मामले में अगली सुनवाई एक सप्ताह बाद होगी.
बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय की ओर से दाखिल अर्जी में कहा गया है कि केंद्र सरकार ने माइनॉरिटी एक्ट की धारा-2 (C) के तहत मुस्लिम, क्रिश्चियन, सिख, बौद्ध और जैन को अल्पसंख्यक घोषित किया है लेकिन यहूदी बहाई को अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया गया. साथ ही कहा गया है कि देश के 9 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ नहीं मिल रहा है. याचिका में कहा गया कि लद्दाख, मिजोरम, लक्ष्यद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में हिंदू की जनसंख्या अल्पसंख्यक के तौर पर है. याचिकाकर्ता ने कहा कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक होने के कारण हिंदुओं को अल्पसंख्यक का लाभ मिलना चाहिए, लेकिन उनका लाभ उन राज्यों के बहुसंख्यक को दिया जा रहा है.
बता दें कि उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा कि संविधान में अल्पसंख्यक शब्द दिए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की बेंच ने 2002 इसकी व्याख्या करते हुए कहा था कि भाषाई और धर्म के आधार पर जो अल्पसंख्यक माना जाएगा. याचिकाकर्ता ने कहा कि राज्यों की मान्यता भाषाई आधार पर हुई है ऐसे में अल्पसंख्यक का दर्जा राज्यवार होना चाहिए न कि देश के लेवल पर. ऐसे में भाषाई और धर्म के आधार पर स्टेटवाइज ही अल्पसंख्यक का दर्जा होना चाहिए और राज्यवार ही इस पर विचार होना चािहए. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के बाद अब अल्पसंख्यक का दर्जा राज्यवार ही होना चाहिए और वह भाषा और धर्म के आधार पर राज्यस्तर पर हो सकता है.
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में इससे पहले भी अश्विनी उपाध्याय की ओर से अर्जी दाखिल की गई थी तब सुप्रीम कोर्ट ने 20 फरवरी को मामले में सुनवाई से इंकार कर दिया था और याचिकाकर्ता को दिल्ली हाईकोर्ट जाने को कहा था. याचिकाकर्ता ने कहा कि दिल्ली हाई कोर्ट, मेघालय हाईकोर्ट, गुवाहाटी हाई कोर्ट में इससे संबंधित केस पेंडिंग है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ट्रांसफर किया जाना चाहिए. अलग-अलग हाई कोर्ट में केस होने से अलग अलग मत आ सकते हैं ऐसे में मामला सुप्रीम कोर्ट में सुना जाना चाहिए. याचिकाकर्ता ने कहा कि नेशनल कमिशन फॉर माइनॉरिटी एक्ट 1992 की धारा 2 (सी) को गैर संवैधानिक घोषित किया जाए जिसके तहत अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है. साथ ही गुहार लगाई गई है कि हिंदुओं को 9 राज्यों में अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए.
दरअसल, 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से उस याचिका पर जवाब दाखिल करने को कहा था जिसमें याचिकाकर्ता ने नेशनल कमिशन फॉर माइनॉरिटी एजुकेशन इंस्ट्यूशन एक्ट को चुनौती दी थी. याचिकाकर्ता ने कहा तब कहा था कि यह एक्ट एजुकेशनल इंस्टिट्यूट को चलाने के लिए राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों को मान्यता देने में सफल नहीं हुआ है. सुप्रीम के जस्टिस एसके कौल की अगुवाई वाली बेंच ने ममले में दाखिल याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर छह हफ्ते में जवाब दाखिल करने को कहा था.
याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय के वकील विकास सिंह ने नेशनल कमिशन फॉर माइनॉरिटी एजुकेशन एक्ट 2004 को चुनौती दी हुई है. याचिकाकर्ता ने उस याचिका में कहा था कि जहां हिंदू, यहूदी और बहाई धर्म के लोग अल्पसंख्यक हैं उन्हें अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और उन्हें चलाने के मौलिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है, जबकि लक्ष्यद्वीप में मुस्लिम 96.58 फीसदी है, कश्मीर में 96 फीसदी है लद्दाख में 44 फीसदी है फिर भी वह अल्संख्यक संस्थान की स्थापना कर सकते हैं.
अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि 2004 का ये एक्ट मनमाना है और संविधान के समानता और जीवन के अधिकार के प्रावधानों के खिलाफ है. याचिका में एक्ट को चुनौती देते हुए कहा गया है कि राज्यों के हिसाब से अल्पसंख्यक की पहचान सुनिश्चित की जाए. यह एक्ट 6 जनवरी 2005 से लागू हुआ है और इसके तहत अल्पसंख्यक का दर्जा जिन समुदाय को मिला हुआ है वह अल्पसंख्यक संस्थान खोल सकते हैं और इसके तहत सरकार से इन संस्थानों को आर्थिक सहायता मिलती है.
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