नई दिल्ली. कांग्रेस पार्टी में भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली लॉबी है, जो चाहती है कि सोनिया गांधी दिसंबर 2022 तक पार्टी के अध्यक्ष पद पर बनी रहें। दूसरी तरफ, पार्टी के ज्यादातर नेताओं की मांग है कि राहुल गांधी एक बार फिर पार्टी की कमान संभालें, मगर पार्टी कोई रिस्क भी नहीं लेना चाहती है। उसे हाल में हुई बिहार की हार अभी भी कचोट रही है। इसलिए वह नए अध्यक्ष की छवि पार्टी खराब नहीं होना देना चाहती, क्योंकि कुछ महीनों बाद देश के पांच राज्यों में चुनाव होने हैं।
इसमें पं बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुडुचेरी है। इन राज्यों में चुनाव मई तक हो जाएंगे। पं बंगाल और असम में बीजेपी मजबूती के साथ आगे बढ़ रही है। अगर इस वक्त राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाता और इन पांच राज्यों में कांग्रेस का रिजल्ट खराब होता तो नए अध्यक्ष की छवि पर बट्टा लग जाता। वैसे राहुल गांधी अध्यक्ष बनने की बात पर कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि शुक्रवार को होने वाली कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) की मीटिंग को मई तक टाल दिया गया है।
याद रहे कि 2019 लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद से ही कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर सवाल उठने लगे थे, मगर तब कोई भी नेता खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर नहीं कर पाते थे। 2019 लोकसभा चुनावों में पार्टी को करारी हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से तुरंत इस्तीफा दे दिया था। हालांकि उनको बहुत रोकने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने पार्टी की हार की जिम्मेदारी खुद पर लेते हुए अध्यक्ष पद से तुरंत इस्तीफा दे दिया। इसके बाद से ही पार्टी में अंतर्कलह शुरू हो गया।
हर गुजरते दिन के साथ अहमद पटेल को कांग्रेसी और ज्यादा याद कर रहे हैं। वो कांग्रेस की राजनीतिक मुश्किलों को हल करने में जिस तरह कामयाब थे वो याद किया जा रहा है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि कुछ ऐसा ही कड़वा अनुभव सोनिया गांधी को उस समय भी हुआ था, जब साल 2019 में पार्टी के एक सीनियर नेता को फंड इकट्ठा करने के लिए कहा गया था और उस समय कुछ दिक्कतें आई थीं। लिहाजा कह सकते हैं कि गांधी परिवार के लिए एक बार फिर मुश्किल समय आया है और उन्हें ऐसे किसी नेता की जरूरत है जो मोतीलाल वोरा और अहमद पटेल के खांचे में फिट बैठ सके।
पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन बंसल इस समय ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के कोष को मैनेज कर रहे हैं। हालांकि बंसल को पूर्णकालिक कांग्रेस का कोषाध्यक्ष के रूप में देखा नहीं जा रहा है। यह पद पहले उमा शंकर दीक्षित, अतुल्य घोष, प्रणब मुखर्जी, पी आर सेठी, सीताराम केसरी, मोतीलाल वोरा और अहमद पटेल के पास रहे हैं। इनमें से अधिकांश लोग ऐसे थे जिन्होंने लगातार पार्टी हाईकमान के भरोसे का आनंद लिया, क्योंकि वे इस बात के गोपनीय विवरणों को पूरी तरह जानते थे कि पैसा कैसे आ रहा है और कहां जा रहा है। पार्टी के कोषाध्यक्ष का काम न केवल फंड जुटाना है, बल्कि पार्टी की भीड़ के भीतर से भीड़ और समर्थन तब भी होता है जब नेता (राहुल) की किस्मत विधानसभा और संसदीय चुनावों में भारी नहीं होती है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो पार्टी के अंदर नेतृत्व के मुद्दे पर तीन विचार हैं, जो इस विशाल पुरानी पार्टी के भीतर उठ रहे हैं और हरेक के अपने अपने तर्क हैं। जो लोग राहुल गांधी को दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की वकालत करते हैं उनका कहना एकदम साफ है कि पार्टी और नेहरू-गांधी परिवार ने राहुल गांधी में साल 2004 से इतना भारी समय और ऊर्जा लगाई है। जबसे उन्होंने आधिकारिक रूप से कांग्रेस पार्टी जॉइन की थी, उनका कद पार्टी में लगातार बढ़ा और साल 2006 में वो पार्टी के महासचिव बन गए।
साल 2013 में पार्टी के उपाध्यक्ष के तौर पर सामने आए और 87वें एआईसीसी प्रमुख के तौर पर पार्टी के सभी समूहों और इकाइयों से स्वीकृत हुए। अब अगर इसमें कुछ बदलाव किया जाता है या फिर से विचार किया जाता है तो राहुल गांधी के पास कोई रोल और पोजीशन नहीं रहेगी जो कि पहले से मौजूद राजनीतिक और श्रेणीबद्ध समीकरणों को बिगाड़ सकता है। लिहाजा, कांग्रेस के अंदर घमासान की वजह से प्रतिष्ठा बताए रहने की सिर्फ तरकीब निकाली जा रही है। नेताओं को भी मालूम है कि अध्यक्ष चाहे जो भी हो, चलेगी सोनिया और राहुल की ही। इसलिए कांग्रेस पार्टी ये समय निकल जाने के बाद ही अपने नए अध्यक्ष के सिर पर वो अध्यक्षी का ताज पहनाने की सोच रही होगी।
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