एस. सिंहदेव
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अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। इलेक्टोरल वोट की गणना में मौजूदा राष्ट्रपति व रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पीछे चल रहे हैं। डेमोक्रेट प्रत्याशी जो बाइडन ने अप्रत्याशित रूप से लंबी बढ़त बना ली है। रिपोर्ट के मुताबिक ट्रंप जहां 214 वोट हासिल कर पाए हैं, वहीं बाइडन को 272 मत प्राप्त हुए हैं। साफ है कि दोनों प्रत्याशियों के बीच फासला लंबा है। ट्रंप के मिजाज को समझें तो मतदान का यह रुझान उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए मजबूर कर सकता है। दरअसल, ट्रंप की नीतियां और चुनाव प्रचार के दौरान उठाए गए उनके कदमों ने राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें कमजोर कर दिया था। इसका फायदा उनके विरोधी बाइडन ने खूब उठाया। उन्होंने ट्रंप की हर कमजोरी पर सटीक वार किया, जिसका नतीजा आज चुनाव परिणाम के रूप में देखा जा सकता है।
वीजा व आव्रजन नीति
रोजगार या व्यापार के सिलसिले में प्रवास की इच्छा रखने वालों के लिए अमेरिका हमेशा से सपनों का देश रहा है। निश्चित तौर पर दुनिया के पुरातन लोकतंत्र और वहां की समाजिक व्यवस्था दुनिया और खासकर विकासशील देशों के महत्वाकांक्षी लोगों को आकर्षित करती रही है। इसलिए, अमेरिका के हर क्षेत्र में आज दुनिया के ज्यादातर देशों के मूलवासी मिल जाएंगे। इनमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, अफ्रीका आदि देशों के प्रवासी नागरिकों की संख्या सबसे ज्यादा है। आज भी इन देशों के युवाओं का सपना अमेरिका में रहना और काम करना होता है। लेकिन, ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिका प्रवास का सपना और कठिन हो गया। उन्होंने वीजा के साथ-साथ इमिग्रेशन पॉलिसी में बड़ा बदलाव किया। एच-1बी वीजा के निमयों को काफी सख्त कर दिया, जिसके कारण भारत समेत अन्य देशों के मूलवासियों के लिए अमेरिकी ग्रीन कार्ड हासिल करना और मुश्किल हो गया। वर्ष 2018 में अमेरिका में कुल इमिग्रेशन की सीमा 40 हजार थी जो बाद के वर्षों में घटते-घटते 23 हजार पर आ गई थी। चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप की इस नीति को गलत बताते हुए बाइडन ने साफ कहा कि वह अगर राष्ट्रपति बने तो इमिग्रेशन की सीमा दो लाख की जाएगी। इसके साथ ही ग्रीन कार्ड के लिए देश का कोटा खत्म कर दिया जाएगा। यानी, ग्रीन कार्ड आवेदन के अनुरूप मिलेगा न कि देश के कोटे के अनुरूप। इस कोटा के चक्कर में ही भारतीयों को अमेरिकी ग्रीन कार्ड के लिए दशकों तक इंतजार करना पड़ता है।
ईरान, इराक, सूडना, यमन आदि मुस्लिमबहुल देशों के लिए ट्रंप ने वीजा पर पाबंदी लगा दी थी। उनका मानना था कि अमेरिका में शांति और स्थिरता के लिए इन देशों के नागरिकों को दूर रखना ही बेहतर है। बाइडन ने इसे मौके के रूप में लपक लिया। उन्होंने इन देशों के नागरिकों के लिए भी अमेरिका के दरवाजे खोलने की घोषणा कर दी। अमेरिका में शरणार्थियों की समस्या बड़ी है। ट्रंप ने इनकी संख्या को सीमित करते हुए 40 हजार कर दी थी। लेकिन, बाइडन ने इनकी सीमा एक लाख से भी ज्यादा करने की घोषणा की है। बाइडन की बढ़त में ये दोनों पैक्टर भी अहम रहे। चीन के खिलाफ ट्रंप की आक्रमकता ने भी बाइडन को एक अवसर प्रदान किया। बाइडन जानते हैं कि अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए चीन के साथ कभी दोस्ताना रिश्ते नहीं रख सकते, इसिलए वह चीन के पक्ष में कभी खुलकर तो नहीं बोले लेकिन विरोध भी खुलकर नहीं किया। इसके कारण चीनी प्रभुत्व का लाभ भी बाइडन को निःसंदेह हासिल हुआ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन व जलवायु परिवर्तन
विश्व स्वास्थ्य संगठन व जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर ट्रंप का स्टैंड विवादों में रहा। दोनों ही संगठनों से अमेरिका के बाहर आने को लेकर वैश्विक प्रतिक्रियाएं सही नहीं रहीं। इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रपति चाहे कोई रहा हो और सत्ता चाहे किसी भी पार्टी के हाथ में रही हो वह अमेरिका की दादागीरी बनाए रखना चाहता है। हां, ट्रंप जैसे नेता अमेरिका फर्स्ट का नारा दे देते हैं और बराक ओबामा जैसे नेता चुप्पी साधते हुए इस नीति पर अमल करते रहे हैं। अमेरिका धनबल से ही वैश्विक संगठनों के जरिये दुनियाभर में अपने रसूख का परिचय देता रहा है। ट्रंप ने जबकि इन संगठनों को निर्रथक बताते हुए इनका त्याग करने की घोषणा की तो बाइडन को बैठे-बैठाए मौका मिल गया। वह अमेरिका के लोगों को समझाने में सफल रहे कि इन दोनों संगठनों में अमेरिका का रहना इसलिए जरूरी है, ताकि वह इन संगठनों का और इनके जरिये दुनिया का नेतृत्व कर सके। बाइडन ने चुनाव प्रचार के दौरान स्पष्ट तौर पर कहा था कि वैश्विक संगठनों की प्रासंगिकता प्रभावी नहीं है, लेकिन उन्हें दुरुस्त करने और उनका नेतृत्व करने के लिए अमेरिका को उनमें शामिल रहना होगा। उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन में वापसी, उसकी फंड बहाली व जलवायु परिवर्तन समझौते में दोबारा शामिल होने की घोषणाएं भी की हैं।
आतंकवाद व अमेरिका
पाकिस्तान के प्रति नरम रुख रखने के बावजूद बाइडन ने आतंकवाद के मुद्दे पर सख्ती दिखाकर भारत को अपने पक्ष में करने की कोशिश की। अमेरिका में रह रहे भारतीयों और खासकर हिंदुओं के मन में उन्होंने यह विश्वास पैदा करने की कोशिश की कि आतंकवाद के मुद्दे पर उनकी सरकार कोई समझौता नहीं करने जा रही है। यही नहीं उनकी सरकार बनी तो सुरक्षा और कारोबार के मामले में अमेरिका व भारत के रिश्ते और मजबूत होंगे।
सारांश
कुलमिलाकर यह कहना सही होगा कि ट्रंप की वाचालता और आक्रामक रवैया जिन्हें वह मील का पत्थर समझ रहे थे वे रास्ते का पत्थर साबित हुए। बाइडन और उनकी टीम ने ट्रंप के कमजोर नसों को न सिर्फ समझा बल्कि चुनाव के दौरान उनका बाखूबी इस्तेमाल भी किया। नतीजा आज सामने है कि चुनाव के शुरुआती दौर में आगे चल रहे ट्रंप आज बाइडन से काफी पीछे रह गए हैं।