एस. सिंहदेव
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आज जबकि बिहार विधानसभा की 71 सीटों के लिए मतदान हो रहा है, नेताओं की धड़कनें बढ़ी हुई हैं। कोरोना काल में हो रहे चुनाव में भारी मतदान की अपेक्षा तो शायद ही किसी ने की हो, लेकिन इतने कम मतदान की भी कल्पना किसी ने नहीं की होगी। इस चुनाव में जहां नीतीश कुमार के 15 साल के शासन की परीक्षा हो रही है, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के सुपुत्र तेजस्वी यादव का तेज भी दांव पर लगा है। लेकिन, सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा दिवंगत केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान की है। इसकी तीन वजहें हैं- एक तो राजनीति के मौसम विज्ञानी माने जाने वाले रामविलास पासवान इस चुनाव में नहीं रहे और दूसरा कि चिराग खुद पहली बार किसी चुनाव की प्रत्यक्ष कमान संभाल रहे हैं। तीसरी वहज है राजग से अलग होकर दम ठोंकना।
सत्तारूढ़ गठबंधन से अलग होकर अकेले दम पर बिहार में चुनाव लड़ना चिराग के लिए नया अनुभव हो सकता है, लेकिन लोजपा के लिए यह दूसरा मौका है। इससे पहले लोजपा वर्ष 2005 में अकेले दम पर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है। उसे फायदा भी हुआ था। 178 सीटों पर प्रत्याशियों ने जोर आजमाइश की थी और 29 पर जीत भी मिली थी। लोजपा को इतनी सीटों पर शायद पहली बार जीत मिली थी। इस बार भी चिराग पासवान ने 143 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। प्रत्याशी उतारना बड़ी चुनौती नहीं थी। चुनौती तो यह है कि इनमें कितने जीत पाएंगे। अगर जीत का आंकड़ा वर्ष 2005 का इतिहास दोहराता है तो चिराग निश्चित तौर पर किंगमेकर की भूमिका में होंगे। चिराग के मौजूदा बयानों पर गौर करें तो तब सत्ता का मुखिया भी बदला हुआ नजर आएगा। यानी, बिहार में नेतृत्व भाजपा के हाथों में चला जाएगा क्योंकि चिराग नीतीश कुमार का समर्थन किसी भी हाल में नहीं करेंगे।
बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी का अच्छा प्रर्दशन न सिर्फ चिराग को किंगमेकर की भूमिका में ला खड़ा करेगा, बल्कि उनकी अपनी पार्टी में भी स्वीकार्यता का स्तर बढ़ाएगा। वैसे तो उनकी पार्टी में सेकेंड लाइन का कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जो विद्रोह की भूमिका तैयार करे, लेकिन पार्टी का खराब प्रदर्शन इसकी भी संभावनाएं पैदा करेगा। इसलिए, पार्टी और व्यक्तिगत साख बचाने के लिए चिराग को ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत की दरकार होगी।
चिराग का बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट का नारा कुछ असर दिखाने भी लगा है। युवाओं का एक वर्ग उनके बातचीत और भाषण के अंदाज से प्रभावित है। हालांकि, प्रभावित होना और वोट करना दोनों अलग-अलग मसले होते हैं। खासकर बिहार में जहां अंतिम पल तक यह पता नहीं होता कि ऊंट किस करवट बैठेगा।
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