देश में कोरोना संकट के बीच सियासी बिसातों की शुरुआत हो चुकी है। सत्तारूढ़ दल बीजेपी ने देश के अलग-अलग हिस्सों में वर्चुअल रैलियां करनी शुरू कर दी है। पार्टी ने इस जनसंवाद का नाम दिया है। सीधे शब्दों में कहे, तो पार्टी के शीर्ष नेताओं का दिल्ली स्थित पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय से किसी खास राज्य के गांव-मोहल्लों में मौजूद अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों से सीधा संवाद। उनमें आगामी चुनावों को लेकर ऊर्जा का संचार करना।
इस सिलसिले में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में वर्जुअल रैलियों को संबोधित कर चुक हैं। हालांकि बीजेपी इसे चुनावी रैलियां कहने से गुरेज कर रही है। उसका कहना है कि इसका चुनाव से कुछ लेना-देना नहीं है, बल्कि पार्टी कार्यकर्ता इसके जरिये अपने नेताओं की बातों को फेसबुकस यूट्ब्यूब और ट्विटर जैसे माध्यमों से सुन रहे हैं। पार्टी जो भी कहे, यह उसका अधिकार है, लेकिन गत तीन दिनों में जिन तीन राज्यों में वुर्जुअल रैलियां हुईं दो में राज्यों, बिहार और पश्चिम बंगाल में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बिहार में इसी साल और पश्चिम बंगाल में अगले साल। ऐसे में इन रैलियों को चुनावी कवायद से अलग नहीं किया जा सकता है। साथ ही शाह जिस तरह से इन रैलियों में केंद्र सरकार के काम का उल्लेख कर रहे और पिछले सरकारों की खामियों को गिना रहे हैं, उससे साफ जाहिर है कि पार्टी ने चुनावी समर के लिए कमर कसनी शुरू कर दी है। शाह ने बिहार में तो नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की सरकार बनने का दावा तक कर दिया। ऐसे में इन रैलियों को चुनावी उदेश्य से अलग कैसे किया जा सकता है?
विरोधी दलों की प्रतिक्रिया भी इस बात की पुष्टि करती है। अमित शाह की वर्जुअल रैली के दौरान बिहार में आरजेडी समर्थकों ने थालियां बजाईं और 72 हजार एलईडी टीवी सेट्स के जरिये हुईं इस रैली का सांकेतिक विरोध किया। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने इसे खर्चीली रैली बताया और कहा कि बीजेपी विपक्ष का मनोबल तोड़ने के लिए ऐसी महंगी रैलियां आयोजित करवा रही है। यह कहा नहीं जा सकता है कि हर पोलिंग बूथ एक एलईडी टीवी का इंतजाम करना और तकनीकी सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए प्रदेशभर के कार्यकर्ताओं तक अपनी बात पहुंचाना देश की कितनी पार्टियों के लिए संभव है, लेकिन बीजेपी इस मायने में निश्चित रूप से अन्य पार्टियों से अगे नजर आती है। निश्चित रूप से पार्टी ने अमित शाह की देखरेख में अपनी चुनावी मशीनरी और संगठनात्मक तंत्र को बहुत ज्यादा चुस्त बना लिया है, जिसका फायदा उसको चुनावों में मिल रहा है।
इसका दूसरा पहलू यह भी है कि कोरोना का संकट अन्य पार्टियों को उतना भी सक्रिय नहीं होने दे रहा, जितनी उनमें क्षमताएं हैं। व्यापक जनसंपर्क में जाना उनके कार्यकर्ताओं के लिए संभव नहीं है और वे ऐसा कुछ करें भी तो लोग उनसे बात करने को राजी नहीं होंगे। बीजेपी इन रैलियों के माध्यम से यह बता दिया है कि वह इस नये तरीके से काफी सारे मतदाताओं के पास पहुंच सकती है, जो बाकी दलों के लिए धन और संसाधन, दोनों ही दृष्टियों से लगभग असंभव है। जाहिर है, ऐसे में चुनाव हुए तो सभी के लिए समान अवसर वाली बात हवा-हवाई बनकर रह जाएगी।
संतोष कुमार दूबे, लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं
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